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उलूखन-बंधन-1 ( राग केदार) / तुलसीदास


उलूखन-बंधन-1 ( राग केदार)
 
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हा हा री महरि! बरो , कहा रिस बस भई,

कोखि के जाए सों रोषु केतो बड़ो कियो है।

ढीली करि दाँवरी, बावरी! सँावरेहि देखि,
 
सकुचि सहमि सिसु भारी भय भियो है।1।


दूध दधि माखन भेा, लाखन गोधन धन,
 
जब ते जनम हलधर हरि लियो है।

खायो , कै खवायो, कै बिगार्यो , ढार्यो लरिका री,

 ऐसे सुत पर कोह, कैसो तेरो हियो है?।2।

 मुनि कहैं सुकृती न नंद जसुमति सम,

न भयो, न भावी, नहीं विद्यमान बियो है।

कौन जानै कौनें तप, कौनें जोग जाग जप,

कान्ह सो सुवन तोको महादेव दियो है।3।

इन्हही के आए ते बधाए ब्रज नित नए,

नादत बाढ़त सब सब सुख जियो है।

नंदलाल बाल जस संत सुर सरबस ,

गाइ सो अमिय रस तुलसिहुँ पियो है।4।


(17)

ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि,

डारि दै घरबसी लकुटी बेगि कर तें।1।

कह्यो मेरो मानि, हित जानि, तू सयानी बड़ी,

बड़े भाग पायो पूत बिधि हरि हर तें।
 
ताहि बाँधिबे को धाई, ग्वालिन गोरस बहाई,

 लै लै आईं बावरी दाँवरी घर-घर तें।2।

कुलगंरू तिय के बचन कमनीय सुनि,

सुधि भए बचन जे सुने मुनिबर तें।

छोरि, लिए लाइ उर, बरषैं सुमन सुर ,

मंगल है तिहूँ पुर हरि हलधर तें।3।

आनँद बधावनो मुदित गोप-गोपीगन ,

 आजु परी कुसल कठिन करवर तें।

तुलसी जे तोरे तरू, किए देव दियो बरू,

 कै न लह्यो कौन फरू देव बरू,

कै न लह्यो कौन फरू देव दामोदर तें।4।