भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उल्टे सूरज की आग जम गयी/ विनय प्रजापति 'नज़र'
Kavita Kosh से
लेखन वर्ष: २००४
सोचा था दिन चढ़ेगा दोपहर तक
तो सूरज की आग
सर्दियों के सर्द बादलों को ग़ुबार कर देगी
बहने लगेगा बदन में जमा हुआ लहू
और झपकने लगेंगी एक टुक अपलक पलकें
लेकिन ऐसा कुछ भी हुआ नहीं
दिन दोपहर तो चढ़ा पर बादल नहीं छटे
कोहरा नहीं पिघला
उल्टे सूरज की आग जम गयी,
ठिठुर गयी…
सर्द हवा ने बुझा दिया दिन का सूरज
उतरने लगा शाम के आगोश में दिन
आज शफ़क़ न गुलाबी न जाफ़रानी थी
बस नीला स्लेटी आकाश
अजीब उदासियों के साथ बैठा रहा
न जाने किसके इन्तिज़ार में…