उल्फ़त में ज़माने की हर रस्म को ठुकराओ / नक़्श लायलपुरी
1
उल्फ़त में ज़माने की, हर रस्म को ठुकराओ
फिर साथ मेरे आओ ओ
उल्फ़त में ज़माने की, हर रस्म को ठुकराओ
क़दमों को ना रोकेगी, ज़ंजीर रिवाज़ों की
हम तोड़ के निकलेंगे, दीवार समाजों की
दूरी पे सही मंज़िल, दूरी से, ना घबराओ
उल्फ़त में ज़माने की, हर रस्म को ठुकराओ
मैं अपनी बहारों को, रंगीन बना लूँगा
सौ बार तुम्हें अपनी, पलकों पे बिठा लूँगा
शबनम की तरह मेरे, गुलशन में, बिखर जाओ
उल्फ़त में ज़माने की, हर रस्म को ठुकराओ
आ जाओ, के जीने के हालात बदल डालें
हम तुम ज़माने के, दिन-रात बदल डालें
तुम मेरी वफ़ाओं की, एक बार, क़सम खाओ
उल्फ़त में ज़माने की, हर रस्म को ठुकराओ.
2
उल्फ़त में ज़माने की, हर रस्म को ठुकराओ
फिर साथ मेरे आओ, फिर साथ मेरे आओ
उल्फ़त में ज़माने की, हर रस्म को ठुकराओ
दुनिया से बहुत आगे, जिस भीड़ में हम होंगे
ये सोच लो पहले से हर भीड़ में ग़म होंगे
है ख़ौफ़ ग़मों से तो रुक जाओ, ठहर जाओ
फिर साथ मेरे आओ, फिर साथ मेरे आओ
मैं टूटी हुई क़श्ती ख़ुद पार लगा लूँगी
तूफ़ान को मौजों की पतवार बना लूँगी
मझधार का डर है तो साहिल पे ठहर जाओ
फिर साथ मेरे आओ, फिर साथ मेरे आओ
दिल और कहीं देकर तुम चाहे बदल जाओ
दो चार क़दम चल कर मुमकिन है बहक जाओ
फिर साथ मेरे आओ, फिर साथ मेरे आओ
उल्फ़त में ज़माने की, हर रस्म को ठुकराओ