उषा का आह्वान करो / रश्मि प्रभा
मेरे शब्द रुंआसे हैं
या क्लांत भयभीत
अपनी जिजीविषा से ही निराश हो चले हैं
या फिर वक़्त की सुनामियों में उनका नामोनिशां नहीं रहा ...
नाव तो डाल दी मैंने
भावनाओं के सागर में
लहरों से जूझते जूझते जाना
मैंने तैरना सीखा ही नहीं
और खुद को नदी मान
समंदर में उतर आई !
अब इस समंदर में ढूंढ रही हूँ अस्तित्व
तर्क का साफा बाँधा है
बूंद बूंद से ....
विलीन हो मैंने विनम्रता का परिचय दिया है
समर्पण की बुनियाद हूँ मैं
सागर की विशालता और मैं
उसी का एक हिस्सा हूँ मैं ...
अब ऐसे में भला शब्द
अवश शिथिल कैसे हो सकते हैं
उन्हें तो यात्रा बरक़रार रखनी है
सीप इकट्ठे करने है
और मोती हो जाना है
मोती -
जिसे पाकर सूखी रोटियों में भी जीवन नज़र आए
उम्मीदों भरी नींद आए
हौसलों सी चमकती सुबह हो ......
उठो मेरे शब्द
बन्द सीप से बाहर आओ
उषा का आह्वान करो