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उषे / मुकुटधर पांडेय

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उषे! बता किस व्यक्ति ने निर्माण हा, तेरा किया?
बलार्क-सिन्दूर तेरे भाल में किसने दिया?
सर्वप्रथम तेरा हुआ था जन्म कब संसार में?
किसने लिया निज गोद में सर्वाग्र तुझको प्यार में?

सुख-शान्ति-युत कमनीय वह कैसा मनोहर-काल था?
आलोक-मय करता गमन तब कौन सा ग्रह-जाल था?
उस काल हँसते थे कुसुम, क्या थी सुकोकिल बोलती?
तेरे सुस्वागत हेतु तटिनी क्या विकल थी डोलती?

प्रातः निकल निज गेह से करती अहो, जब तू गमन,
नव रश्मियों का मुकुट तेरे शीश रखता कौन जन?
क्या तरल चपल समीर कर लाती यहाँ तुझको बहन?
पाल तुझे निज अंक में लाता त्वरित है श्याम-घन?

उषे, यहाँ आती सदा तू बात किसकी मानकर?
किसने दिया यह रूप तुझको दिव्यतम क्या जान कर?
तुझको कभी देखा नहीं सन्ताप में या शोक में,
किस वस्तु को सबसे अधिक तू चाहती है लोक में?

वन बाग बीच बिखेरती बहु नित्य मुक्त-माल तू,
क्या तोड़ लाती मार्ग से निज मोतियों की डाल तू?
किसने तरलता-मय दिया यह भाव तुझको त्याग का?
किसने भरा तेरे हृदय में रंग यह अनुराग का?
उषे, भला, किस हेतु करती तू निरन्तर हास है,?
किसको रिझाने के लिए यह सरल भृकुटि-विलास है?
कहती न कुछ बस, एक ही सी तू खड़ी है हँस रही?
है जान पड़ता गेह से निज सीखकर आई यही?

क्षण-काल ही के हेतु हे उषे, सकल तव साज हैं,
चांचल्य-पूरित बालिका के से सभी तब काज हैं,
इन्द्र प्रभा सी रंगिमा ले शीघ्र तू आती यहाँ,
चपल सदृश बस चमक कर है लौट फिर जाती कहाँ?

-सरस्वती, अक्तूबर-1921