भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उसकी आँखों में रहते हैं बुरास / कुमार कृष्ण
Kavita Kosh से
वह आदमी
काशी की धोती पहनकर
सीढ़ियों के शहर में आया
और बुरास के जंगलों में
रिश्तों के बीज बोकर
विलायती पतलून पहनकर लौट गया
वह शायद नहीं बनना चाहता था
पूरी तरह विलायती बाबू
इसीलिए लौट गया गंगा के पास
वही गंगा
जो मेरे पहाड़ की रिस्ती हुई तकलीफ़ है
पहाड़ पर
सिर्फ पहाड़ पर ही होते हैं
नदियों के घर
वह शख़्स शायद भूल चुका है पूरी तरह
नारकण्डा कि धुंध
पर शायद नहीं भुला पाया
टेनिस कोर्ट में गुजारे दिन
वह बो गया आलोचना के बीज शब्द
छुपा गया किसी खेल की तरह
पहाड़ी ज़मीन पर
साहित्य का समाजशास्त्र
वह सौंप गया
कविता को धार देने वाले अनगिनत औजार।