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उसकूँ हासिल क्योंकर होए जग में / वली दक्कनी
Kavita Kosh से
उसकूँ हासिल क्योंकर होए जग में फ़राग़—ए—ज़िन्दगी
गर्दिश—ए—अफ़लाक है जिस कूँ अयाग—ए—ज़िन्दगी
अय अज़ीज़ाँ सैर—ए—गुल्शन है गुल—ए—दाग—ए—अलम
सुहबत—ए—अहबाब है मआनी में बाग़—ए—ज़िन्दगी
लब हैं तेरे फ़िलहक़ीक़त चश्म—ए—आब—ए—हयात
ख़िज़्र—ए—ख़त ने उस सूँ पाया है सुराग़—ए—ज़िन्दगी
जब सूँ देखा नईं नज़र भर काकुल—ए—मुश्कीं—ए—यार
तबसे ज्यूँ सुम्बले—ए—परीशाँ है दिमाग़—ए—ज़िन्दगी
आसमाँ मेरी नज़र में कूबा—ए—तारीक है
गर न देखूँ तुझ कूँ अय चश्म—ए—चराग़—ए—ज़िन्दगी
लाला—ए—ख़ूनीं कफ़न के हाल से ज़ाहिर हुआ
बस्तगी है ख़ाल सूँ खूबाँ के दाग़—ए—ज़िन्दगी
क्यूँ न होवे अय ‘वली’! रौशन शब—ए—क़दर—ए—हयात
है निगाह—ए—गर्म—ए—गुलरू याँ चराग़—ए—ज़िन्दगी