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उससे यारी का भरम ताउम्र पल सकता नहीं / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

उससे यारी का भरम ताउम्र पल सकता नहीं।
दो क़दम भी जो हमारे साथ चल सकता नहीं।

हाथ में पतवार उसके कैसे दे दें जान कर,
अपने पेचोख़म का जिससे हल निकल सकता नहीं।

देखकर बदले हुये हालात वह हैरान हैं,
जो कहा करते थे ये पत्थर पिघल सकता नहीं।

बन्द हो जाती हैं उनकी ही जबाने वक़्त पर,
जिनके खाँचे से गले के सच निकल सकता नहीं।

काम ऐसे ठोस करिये जो दिखें महसूस हों,
मुल्क अपना सिर्फ़ वादों से बहल सकता नहीं।

अज़्म ने उसके बदलकर रख दी तस्वीरें चमन,
लोग कहते थे कि ये नक़्शा बदल सकता नहीं।

आइये हम हँसते हँसते क्यों न हो जायें जुदा,
ये तअर्रुफ जब किसी सांचे में ढ़ल सकता नहीं।

तीरगी ताजिन्दगी ‘विश्वास’ घेरेगी उन्हें,
जिनके सीने में चिरागे इश्क़ जल सकता नहीं।