उसी क़ातिल का सीने में तेरे ख़ंजर रहा होगा / समीर परिमल
उसी क़ातिल का सीने में तेरे ख़ंजर रहा होगा
कि जो छुपकर बहुत एहसास के अंदर रहा होगा
न जाने किस तरह ख़ामोश दरिया में मची हलचल
निगाहों में तेरी शायद कोई कंकर रहा होगा
दरो-दीवार से आँसू टपकते हैं लहू बनकर
इसी कमरे में अरमानों का इक बिस्तर रहा होगा
कहीं सिमटा है सन्नाटे की चादर ओढ़कर देखो
कभी बस्ती में वो भी खिलखिलाता घर रहा होगा
तुम्हें भी हो गया धोका ज़मीं की इन दरारों से
समझ बैठे हमेशा ही ये दिल बंजर रहा होगा
रहूँ ख़ामोश मैं फिर भी फ़साना बन ही जाता है
तेरे दिल मे किसी अख़बार का दफ़्तर रहा होगा
मुझे शोहरत अता की ज़हर रुसवाई का पीकर भी
मेरे वालिद के भीतर भी कोई शंकर रहा होगा
तेरी बुनियाद में शामिल कई मासूम चीख़ें हैं
इमारत बन रही होगी तो क्या मंज़र रहा होगा
सुना है आपके दिल मे रवां होने लगी नफ़रत
यकीनन बदगुमां 'परिमल' कोई शायर रहा होगा