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उसी ने रचा है / धर्मवीर भारती

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नहीं-वह नहीं जो कुछ मैंने जिया
बल्कि वह सब-वह सब जिसके द्वारा मैं जिया गया

नहीं,

वह नहीं जिसको मैंने ही चाहा, अवगाहा, उगाहा-
जो मेरे ही अनवरत प्रयासों से खिला
बल्कि वह जो अनजाने ही किसी पगडंडी पर अपने-आप
मेरे लिए खिला हुआ मिला
वह भी नहीं
जिसके सिर पंख बाँध-बाँध सूर्य तक उड़ा मैं,
गिरा-गिर गिर कर टूटा हूँ बार-बार
नहीं-बल्कि वह जो अथाह नीले शून्य-सा फैला रहा
मुझसे निरपेक्ष, निज में असम्पृक्त, निर्विकार

नहीं, वह नहीं, जिसे थकान में याद किया, पीड़ा में
पाया, उदासी में गाया
नहीं, बल्कि वह जो सदा गाते समय गले में रुँध गया
भर आया
जिसके समक्ष मैंने अपने हर यत्न को
अधूरा, हर शब्द को झूठा-सा
पड़ता हुआ पाया-

हाय मैं नहीं,
मुझमें एक वही तो है जो हर बार टूटा है
-हर बार बचा है,
मैंने नहीं बल्कि उसने ही मुझे जिया
पीड़ा में, पराजय में, सुख की उदासी में, लक्ष्यहीन भटकन में
मिथ्या की तृप्ति तक में, उसी ने कचोटा है-
-उसी ने रचा है !




9 मार्च ’59