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उसी पर्वत के लिए कविता / निकिफ़ोरॉस व्रेताकॉस / अनिल जनविजय
Kavita Kosh से
नहीं, मैं कहने नहीं आया —
अलविदा, मेरे भाई !
जब मैं धूप बना हुआ था
तब तुमने मुझे रखा
टहनियों की फुनगी पर ।
मैंने अपनी ज़्यादातर कविताएँ रची हैं
तुम्हारे शरीर पर ।
और मेरे शब्द जो नारे बन गए
हम दोनों की वजह से
क्योंकि हम खड़े थे एक-दूसरे के सामने
चट्टानों की तरह ।
पर आज
घना जँगल उभर आया है
हमारे बीच
वो नारे अब सुनाई नहीं देते ।
हालाँकि मुझे पता है —
आने वाले दिनों में
मेरी किताबों में बच्चों को मिलेंगे फूल
और वे जीवन के उन चमत्कारों की बात करेंगे
जो उन्होंने दुनिया में देखे होंगे
मेरी कविता के रास्ते ।
रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय