उसी राह में, उसी मोड़ पर / योगेन्द्र दत्त शर्मा
उसी राह में, उसी मोड़ पर
चले गये हम जिसे छोड़कर
वह गुजरा कल हाथ जोड़कर बुला रहा है!
वही एक कच्चा-पक्का घर
टूटा- फूटा ढाँचा जर्जर
उसका वह बेहद अपना स्वर याद आ रहा
जिसमें देखा स्वप्न सुनहरा
नेह- छोह में डूबा गहरा
मां का और पिता का चेहरा थरथरा रहा
आशीषों वाला वह निर्झर
तपते माथे पर ठंडक धर
थके पलों में थपकी देकर सुला रहा है!
जिसमें हमने खोलीं आँखें
जहां उगी थीं नन्ही पाँखें
उसी पेड़ की हरियल शाखें टेर रही हैं
उसकी कँपती हुई पसलियाँ
झेल चुकीं जो कई बिजलियाँ
अब तन- मन पर नर्म उंगलियां फेर रही हैं
सपनों, इच्छाओं, चाहों में
महकी हुई सैरगाहों में
अपनी स्नेहातुर बाँहों में झुला रहा है!
हम नाहक ही उससे बिछुड़े
जितना फैले, उतना सिकुड़े
भीतर-भीतर बेहद निचुड़े, पछताए हैं
बाँधे थे जो भी मंसूबे
किसी अतल में वे जा डूबे
हम इस विस्थापन से ऊबे, उकताए हैं
धड़क रहा उस कल में जीवन
उसमें घुला हुआ अपनापन
उसका द्वार सनातन आँगन खुला रहा है!
हम रीते,पर वह प्रेमाकुल
उसके लिए हुए हम व्याकुल
वह भी हमसे मिलने को कुलमुला रहा है!