भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उसे पहनो न पहनो क्या कभी बदरंग लगता है / मयंक अवस्थी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसे पहनो न पहनो क्या कभी बदरंग लगता है
किसी सोने के ज़ेवर पे कभी क्या ज़्ंग लगता है

मुझे अपनी ग़ज़ल मुल्के-अदब की हूर लगती है
जब इस बुढ़िया के गालों पे किसी का रंग लगता है

गली में आज भी तन्हा मेरा महबूब रहता है
 मगर वो रास्ता मुद्दत से मुझको तंग लगता है

ये मेरी कुव्वते- परवाज़ है मेरा बयाँ अब भी
शिकस्ता-साज़ की धुन का कोई आहंग लगता है

असद की मैं हसद हूँ, मीर को दिलगीर जैसा हूँ
मगर इक आइना मुझको सरासर संग लगता है

वो बेआवाज़ है जिससे हमेशा बलबलाता हूँ
पर उस पर्वत के आगे हर शुतुर पासंग लगता है

मैं गिरगिट हूँ तो जब शाखे-ग़ज़ल से रँग चुराता हूँ
किसी तितली का हँस पड़ना बड़ा बेढंग लगता है

सुक़ूने-दिल न हो तो महफ़िलों में दिल नहीं लगता
हरिक जलसा कोई जलसा नहीं हुड़दंग लगता है