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उसे बयां भी न कर पाएगी ज़बां मेरी / कांतिमोहन 'सोज़'

उसे बयां भी न कर पाएगी ज़बां मेरी ।
ख़ुदा करे न सुने कोई दास्तां मेरी ।।

कहूँ तो कैसे कहूँ चुप रहूँ तो कैसे रहूँ
ये किस अज़ाब में या रब पड़ी है जां मेरी ।

अजीब गर्दिशे-दौरां का मैं शिकार हुआ
न तीरगी मेरी ठहरी न कहकशां मेरी ।

कभी तबस्सुमे-गुल में कभी रगे-दिल में
सलीब रक्खी थी उसने कहाँ-कहाँ मेरी ।

अजब न था कि मुझे सबने मिलके लूट लिया
नहीं नहीं में कहीं हाँ रही निहां मेरी ।

यही जमाले-जहां है तो अब नजात मिले
ये कहके बन्द हुई चश्मे-खूंफ़िशां मेरी ।

नज़र जो सोज़ को आया वही बयान किया
ख़ता पे आँख की कटती रही ज़बां मेरी ।।