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उसे मारो कि / जाबिर हुसेन

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उसे मारो

कि उसकी

रीढ की हड्डी

अब भी सलामत है


उसे मारो

कि उसने

सच बोलते रहने की

अपने पुरखों की

विरासत

अपने मज़बूत हाथों में

थाम रखी है


उसे मारो

कि वो

इंसान-इंसान के बीच

रंग और लहू का

भेद नहीं करता


उसे मारो

कि वो

इंसानी रिश्तों के साए में

जीने और मरने की

सीख देकर

हमारी नस्लों को

गुमराह करता है


उसे मारो

कि वो

हमारी तरह

अपनी आस्तीन में

इंसानी सांपों को

पनपने की

इजाज़त नहीं देता


उसे मारो

कि वो

नदी में रहकर

'मछलियों से बैर'

के उसूल पर

अमल करता है


उसे मारो

कि वो

शहर में रहकर

खुद को

शहर के रस्म-व-रिवाज से

और कायदे-कानून से भी

दूर रखता है


उसे मारो

कि वो

हमारी गालियों

और हमारे हमलों

के बावजूद

बेख़ौफ़

सर उठाकर

चलते रहने की

अपनी आदत से

बाज़ नहीं आता


उट्ठो

अपनी नींदें तोड़ो

और जो भी औज़ार

तुम्हारे हाथ आए

उठाकर

उसके सर पर

उसकी पीठ पर

या उसके सीने पर

दे मारो


जान लो

अगर वो

कुछ दिन और

इसी तरह

बेख़ौफ़

अपना सर बुलंद किए

अपनी राह

चलता रहा

तो हममें से कई को

गुमनामी की नींद

सुला देगा


उसे मारो

अपनी और मेरी

ज़िंदगी चाहते हो, तो

उसे मारो

कि उसकी

रीढ की हड्डी

एकदम से

टूट जाए

और वो

सदा के लिए

मुख़ालिफ़ हवाओं में

तनकर खड़ा होना

और सर बुलंद किए

चलते रहना

भूल जाए


उट्ठो

देर मत करो

ज़िंदा रहना हो, तो

उसे मारो

उसे मारो