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उस जीवन की ओर चलो! / राधेश्याम ‘प्रवासी’

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जहाँ तुम्हारा सिसक रहा है सृजन और निर्माण सखे,
महलों के उन्मुक्त पखेरू उस जीवन की ओर चलो!

कर्म-क्षेत्र में तिल-तिल दे कर रक्त और श्रमदान को,
अब भी क्या अभिशप्त अभागे मिल पाया इन्सान को,
उर-उर की टूटी वीणा के तुम स्वर बन कर आज मिलो!

देख रहा अवसान किन्तु फिर भी जीवन की आश है,
हर आहों में क्षुधा गरजती हर साँसों में प्यास है,
वहीं निराशा के सागर में आशा के बन फूल खिलो!

दलितों की अन्तर पीड़ा पर दीन बन्धु बन ध्यान दो,
मानवता को गतिमय करके चेतनता का दान दो,
घृणा-द्वैष का, मधुर प्रणय से जोड़ ‘प्रवासी’ छोर चलो!

दीनों का सम्बल तुमसे हो यही पुणयमय धर्म है,
आजादी के मूल मन्त्र का पहला ही यह कर्म है,
कटुता का विष पीकर के तुम मुक्त हृदय से आज मिलो!