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उस दरे-फ़ैज़-असर पर कभी जा कर देखें / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

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उस दरे-फ़ैज़-असर पर कभी जा कर देखें
उस के कूचे में किसी रोज़ सदा कर देखें

ये अना का जो महल हम ने बना रक्खा है
इस इमारत को किसी रोज़ गिरा कर देखें

इस तरह बोझ गुनाहों का हो कुछ कम शायद
एक दो अश्क नदामत के बहा कर देखें

कौन रहता है तेरे दिल के सनम ख़ाने में
हम किसी रोज़ तेरे दिल में समा कर देखें

कोई इम्दाद को आता है, नहीं आता है
रात के वक्त़ कभी शोर मचा कर देखें

ज़िक्र सुनते हैं बहुत अद्ले-जहाँगीरी का
क्यों न इँसाफ़ की ज़ँजीर हिला कर देखें

ऐन मुम्किन है कि गुलगश्त को वो आ जायें
दिल के वीराने में इक फूल खिला कर देखें