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उस पार / बुद्धिनाथ मिश्र

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आज चल उस पार मांझी  !
व्योम से होता जहाँ पर धरा का अभिसार मांझी !
आज चल उस पार मांझी !
 
प्रात की पहली किरन खिलती जहाँ उल्लास में भर
रात की सित-कालिमा ढलती जहाँ निश्वास ले कर
तरुनि ऊषा नित किया करती जहाँ सिंगार मांझी  !
आज चल उस पार मांझी !
 
सुरभि की उस ग्रंथि तक जिसमें भ्रमर के गान बंदी
अलस कलिका के अधर पर तृप्ति की मुस्कान बंदी
पल रहा जिस कूल पर हो प्यार पारावार मांझी  !
आज चल उस पार मांझी !
 
छू न पाएँ जिस क्षितिज को विश्व की कटु विषमताएँ
राख हो जाएँ न पल पल जल उमंगों की चिताएँ
हो जहाँ पर चिर-मिलन की कल्पना साकार मांझी !