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उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त / अज्ञेय

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उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त-
वह काक चोंच से लिखता ही जाता है अविश्राम
पल-छिन, दिन-युग, भय-त्रास, व्याधि-ज्वर,
जरा-मृत्यु,
बनने-मिटने के कल्प, मिलन-बिछुड़न,
गति-निगति-विलय के
अन्तहीन चक्रान्त ।

इस धवल शिला पर यह आलोक-स्नात,
उजला ईश्वर-योगी, अक्लान्त शांत,
अपनी स्थिर, धीर, मंद स्मिति से वह सारी लिखत
मिटाता जाता है ।

योगी!
वह स्मिति मेरे भीतर लिख दे :
मिट जाए सभी जो मिटता है ।
वह अलम‍ होगी ।