भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उस रंग भरे गिलास में / विद्याभूषण
Kavita Kosh से
उस रंग भरे गिलास में
अनजाने मुझसे छूट गिरे थे
पत्थर के कई नुकीले टुकड़े।
उस वक़्त
मेरे लिए जाम बनाती
उन लहूलुहान उंगलियों के लिए
उपचार की कोई शैली
नहीं मालूम थी मुझे।
यह इल्म भी नहीं थी अपने पास
कि ज़ख़्म की गहराई नाप सकूँ।
अब जब यह सब पता है
अपना वह सब बेपता है
इस बीच गहरी धुँध में
डूब गई हैं सारी दिशाएँ,
अँधेरे में गुम है रोशनी का घर।
वह जगह निगाहों से ओझल है
जहाँ हुआ था अपना रूपांतर।
इधर रोज़ जिरह करती है मुझसे
दुनिया जहान की ख़बरें,
फिर भी गाफ़िल बेख़बर हूँ
कि इस ताउम्र कालेपानी से
कब तक मिलेगी निजात,
और किस औजार से
इस जेल-फाटक की सलाख़ें
तोड़ पाऊँगा मैं।
न मुश्किल राह ख़त्म होती है,
न वह आधा सफ़र।