उस रात / अम्बिका दत्त
रात
स्वयं स्वप्न बन गई थी - उस रात
धूंधलका ओढें
सड़कों पर मुस्तैद-निस्तब्धता
हवा के साथ
जबरदस्ती घिसटते सूखे पत्ते
अनन्त तक फैले तारों पर
तैरता खौफनाक संगीत
मैं चौंक-चौंक उठता था
डर कर उस रात
गली में, बाहर
घोर नीरवता के बीच
कुत्तों की दहशत भरी
रिरियाने की आवाज
खट्-खट् बजती
घोड़ों की टापें
सिर से पांव तक
दौड़ती रहीं/डर की लहरें
मलेरिया की सर्दी की मानिन्द
उस रात
हिम्मत करके
उठकर दरवाजा खोला
बाहर झांका,
सब लोग जा चुके थे
पता नही कहां ?
सारा शहर वीराने से गूंज रहा था।
हवा के झोंकों से
गली की इमारतों की/ऊपर की मंजिल को
खिड़कियों के पट-सिर पटक रहे थे
अपनी-अपनी चौखट पर - उस रात/दरवाजे
अपने आप खुल रहे थे
बन्द हो रहे थे
रात ! स्वंय स्वप्न हो गई थी।
उस रात/
मैं फिर से मुंह ढक कर सो गया
सुबह बिलकुल शान्त थी
धुली हुई सफेद चादर सी
हवाओं में थी
धूप और अगर की पवित्र गंध
सकून का सांस ले रही थी
पेड़ों की पत्तियां/उदास लटकी हुई
एक तुफान आकर गुजर गया था
उस रात
सड़क पर अस्पष्ट से
नजर आ रहे थे
खून के पदचिन्ह
चुपचाप रो पड़ा मेरा मन
सचमुच !
मेरे आत्मा के साथ
बलात्कार किया था धर्म ने
उस रात !