उस रोज / संतोष श्रीवास्तव

उस रोज़ नौका पर लदे
हथियारों को देखकर
लहरों ने चट्टानों पर सर पटका था और रेत में डूबकर खुदकुशी कर ली थी
उस रोज़ शहर खून से तरबतर था हवाएँ आग की लपटों से
झुलसी बेजान थीं उस रोज़ मातम मना था शहर में इंसानियत के कत्ल का और सरहदों पर जश्न साज़िश की कामयाबी का
उस रोज़ गाँधी की प्रतिमा से
बही थी अश्रुधार और समन्दर अपना सारा पानी
समेट समा गया था तलहटी में

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