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उस वसंत के नाम / अरुणाभ सौरभ
Kavita Kosh से
वो वसंत की सरसराहट मुझे याद है
जिसमें कोयली कूक की जगह
कोयल की चोंच से खून टपका था
आम मंजर के धरती पर गिरने से
विस्फोट हुआ था
सरसों की टुस्सियों से बारूद बरसता था
और हवा में हर जगह
लाशों के सड़ने की गन्ध थी
झरने से रक्त की टघार
और शाम
शाम काली रोशनाई में लिपटी
एक क़िताबी शाम थी
रातों की दहशतगर्दी और सन्नाटे
कुत्तों की कुहू ...कू.......कुहू.... से टूटने थे
एकाएक सारे कुत्ते जोर-जोर से भौंकने लगे थे
एक-एक कर चीथड़े कर रहे थे
इन्सानी माँस के लोथड़े
कहीं हाथ, कहीं पैर, कहीं आँख, कहीं नाक
और हर जगह ख़ून
ख़ून ...ख़ू...न...ख़ू....ऊ...न
पानी की जगह ख़ून
एक वसंत के
रचने, बसने, बनने, गढ़ने, बुनने, धुनने की
क़िताबी प्रक्रिया से दूर...।