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उस समय / रामेश्वरीदेवी मिश्र ‘चकोरी’

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पी वह विषाद की मदिरा, वीणा बेसुध हो जाती।
उन थके हुए तारों पर, विस्मृति आकर इठलाती॥
झिलमिल तारों में छिपकर, आती है निशि दीवानी।
लिख जाती तम के तट पर, भूली वह करुणा कहानी॥
तब स्वर्ग लुटा देता है, होकर जग सुप्त अचेतन।
पलकों पर स्वप्न थिरकते, जीवन के वैभव से बन॥
नीरवता के नर्तन में, सूनेपन की वे घड़ियाँ।
कहतीं कुछ मौन स्वरों में सस्मित नभ की फुलझड़ियाँ॥

छूकर आकुल प्राणों को, उनका संदेश निराला।
आ मुग्ध पिला जाता है, पागल पीड़ा का प्याला॥
उल्लास लिये अंचल में मदमाती हो इठलातीं।
कुछ हँसती, कुछ सकुचातीं, चाँदी-सी रातें आतीं॥

उनमें चित्रित है मेरा, बेसुध अतीत अलसाया।
किस युग से देख रही हूँ, उसकी धुँधली-सा छाया॥
वह दिव्य ज्योति स्मृति नभ की, मैं विस्मृति की अँधियारी।
उसके मलीन अंचल मंे है छिपी साधना प्यारी॥

बिखरे आँखों के मोती, आहें ले गयी उड़ाकर।
चमकीले स्वर्ण-कणों को जड़ दिया क्षितिज पर जाकर॥

चकोरीजी की यह कामना भी अत्यन्त अभिरामतामयी है:-
गगनांचल में कलाकार के हास्य-सा चंद्रमा भी मुसका रहा हो
निशा के लिए मार्ग में चाँदनी के अति कोमल पुष्प बिछा रहा हो
मनोमन्दिर में प्रतिमा निशा की रख मुग्ध-सा ध्यान लगा रहा हो।
मणि-माणिक के बँधे तोरण हों, नभ तारों के दीप जला रहा हो॥

जग डूब रहा हो अचेतना में, यमुना कल गान सुना रही हो।
उन्हीं राधिका-कृष्ण की प्रेम-कथा के मनोहर चित्र बना रही हो।
कुछ श्वेत-सी हो यमुना की तटी जो अतीत के पृष्ठ गिना रही हो।
वहीं रूठ के बैठ गया हो चकोर, चकोरी सभक्ति मना रही हो॥
वहीं बैठ के ध्यान तुम्हारा धरूँ, तन-प्राण तुम्हीं में विर्सजन हों।
पद पूजने को कुछ हो या न हो, पर आँसुओं के बिखरे कण हों।
फल, अक्षत, पुष्प हों भावना के, तुम्हें बैठने को हृदयासन हो।
करूँ आरती भक्ति-प्रदीप जला, उस ज्योति में भारती-दर्शन हो॥