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उस सुदूर दिन की नीली याद में / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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उस दिन हम कैसे गहगहे-महमहे थे!

वह प्रभात-
कदम्ब क फूल-सा रोमांचित था!
वह कांचनारी दोपहरी-
पूर्णतम उभरे उरोजों को कसे
साटिन के ब्लाउज़ पर खेलती
सूर्याभा-सी चमकदार थी!

वह सांझ-
होली के दिनों की पिचकारी से छुटी
रंगीन फुहार थी!

वह रात-
तीज-चौथ की क्वाँरी चाँदनी में महकती
भीनी-मिसकती
लजवंती जूही-सी निंदियारी थी!
वह सारा ही दिन तुम्हारे मोती-दाँत की रलक में
रलमलाता रहा था!
तुम्हारी वाणी की झनकार में
सब कुछ छहरा जा रहा था-
उस दिन!
घनघटाओं से घिरी कश्मीरी घाटी-सी
तुम्हारी रतनारी-कजरारी आँख से
सब कुछ तरलित-दोलायमान था!
चिहुँकते कुन्तलों के जूड़े की
उनींदी गंध में
आकाश-तरंगे पुलकित थीं!
उस दिन-
हमारे चरण-
कितने हल्के-हल्के थे!

काल के पटल पर खिँच चुकी है
सदा-सदा के लिए
उस सुदूर दिन की कोमल-कनक-तरल-हिंगुल लेखा;
जैसे-गुलाब की खरौंट
किसी गोरी-गुदगुदारी, रक्ताभ, स्निग्ध काया पर!

ओह-
वह दिन!