उस सुबह के लिए / रश्मि रेखा
देखती हूँ हर ऱोज शाम होती हुई
किसी काले अगस्त्य द्वारा
आचमन करते प्रकाश के समुन्द्र को
दरख़्त की डाल पर बैठी बुलबुल काँपती हैं
अब तो वसंत अफ़वाहों में ही आता है
सदियों पहले जो सूरज उगा था
उगा तो आज भी वैसे ही करता है
पर यह उगना
उस उगने की तरह क्यों नहीं है
ये चाँद ,ये तारे ,ये मौसम
कुछ भी तो हमारे लिए नहीं हैं
जीने के नाम पर तेज लू है
रेगिस्तानी श्मशान की
तब भी हमारी हथेली की रेखाओं को पढ़ते हुए
सूरज तुम इतने सहम क्यों गए थे
और हमारी मुठ्ठी में बंद वो आकाश खो गया था
लगातार दिखाए जाते हुए
सुखद आश्वासनों के दृश्य
शब्दों की मूसलाधार वर्षा
और एलोरा की गुफाओं सी लम्बी हमारी चुप्पी
तुहें कहीं से आश्वस्त करती है
कि हमारी परिभाषा बदल रही हैं
भीतर ही भीतर
एक पूरे युद्ध की विभीषिका झेलती
यह वर्फ सी ख़ामोशी
एक साथ कई-कई सुरंगों की भाषा उपजा रही है
हमें दिशाऍ मिलती जा रही हैं