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उदघाटन / लीलाधर जगूड़ी
Kavita Kosh से
सबके कानों से
सबके लिए
मैं अलग-अलग सुनता हूँ
मेरे भीतर
एक घूमते हुए घाव की तरह है
यह गर्भवती पृथ्वी
यह गर्भवती पृथ्वी
जिसके भीतर आग है
पानी है
हरियाली है
खेत हैं
बग़ीचे हैं
हज़ारों चिड़ियाँ
जिसके फलों पर
रोज़ चोंच मारती हैं
आकाश ने और ज़्यादा
साफ़ होते हुए कहा
मेरे दिल का कोई पेंदा नहीं है
पर उसमें
कई सतहें हैं
कई तूफ़ान
कई बरसातें
मेरे मन में कई चीज़ें हैं
मैं ख़ूब अंधेरे
और ख़ूब उजाले से भरा हुआ हूँ
मगर केवल पृथ्वी है
तो लगता है
--मेरे भीतर कुछ है
अंधेरे और उजाले के बीच
मेरे भीतर
एक और चीज़ है
--आदमी--
उसके भीतर
मुझसे भी ज़्यादा कुछ है
वह जहाँ से चाहे
आ जाए
मैं चारों ओर से ख़ाली हूँ--
आकाश ने कहा
और हमेशा के लिए खुल गया।