ऊँड़स ली तूने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली / गौतम राजरिशी
ऊँड़स ली तूने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताज़ी चुस्कियों वाली
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मज़ा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
भरे-पूरे- से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ‘गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
{मासिक वागर्थ, अक्टूबर 2009 / त्रैमासिक लफ़्ज़, दिसम्बर-फरवरी 2011}