भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऊंधो हुयोडो रूंख देख’र / सांवर दइया
Kavita Kosh से
म्हारी जड़ां
जमीन में कित्ती ऊंडी है
आ चींतणियो रूंख
आंधी रै थपेड़ां सूं
ऊंधो हुयग्यो जमीन माथै
कित्ताक दिन रैवैला
तण्यो म्हारो डील-रूंख ?
नितूकी बाजै
अठै अभाव-आंधी
होळै-होळै कुतरै
जड़ां नै जीव
अबै
औ गुमान बिरथा
म्हारी जड़ां
जमीन में कित्ती ऊंडी है !