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ऊधव कैं चलत गुपाल उर माहिं चल / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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ऊधव कैं चलत गुपाल उर माहिं चल,
आतुरी मची सो परै कही न कबीनि सौं ।
कहै रतनाकर हियौ हूँ चलिबै कौ संग,
लाख अभिलाख लै उमहि बिकलीनि सौं ॥
आनि हिचकी ह्वै गरै बीच सकस्यौई परै,
स्वेद ह्वैं रस्यौई परै रोम झंझारीनि सौं ।
आनन दुवार तैं उसास ह्वै बढ़्यौई परै,
आँसू ह्वै कढ़्यौई परै नैन खिरकीनि सौं ॥20॥