भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऊधो कहौ सूधौ सौ सनेस पहिले तौ यह / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
Kavita Kosh से
ऊधो कहौ सूधौ सौ सनेस पहिले तौ यह,
प्यारे परदेश तैं कबै धौ पग पारिहैं ।
कहै रतनाकर तिहारी परि बातनि मैं,
मीड़ि हम कबलौं करेजौ मन मारिहैं ॥
लाइ-लाइ पाती छाती कब लौं सिरेहैं हाय,
धरि-धरि ध्यान धीर कब लगि धारिहैं ।
बैननि उचारिहैं उराहनौं सबै धों कबै,
श्याम कौ सलौनो रूप नैननि निहारिहैं ॥35॥