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ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी/ सूरदास

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राग काफी--तीन ताल


ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी।
सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥
उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥
सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥
मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥
सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी॥

भावार्थ :- गोपियाँ भगवान कृष्ण के प्रति अपने प्रेम के प्रतिदानस्वरूप विरह को प्राप्त करती हैं। लेकिन वे इसे विधि का विधान कहकर आश्वस्त रहती हैं। वे ऊधो से कहती हैं कि हे ऊधो, प्रकृति का नियम एकदम उलटा है। धरती पर जितनी भी नदियाँ हैं वे सब की सब अपना मीठा जल सागर में डाल रही हैं लेकिन वह फिर भी खारा ही है। छद्म-तपस्वी बगुले को उसने सफेद रंग दिया है जबकि मीठा बोलने वाली कोयल को काला बना दिया। सुन्दर नेत्रों वाला हिरन जंगल में मारा-मारा फिरता है। अनपढ़ लोग धन से खेलते हैं जबकि ज्ञानी लोग अपना जीवन भीख माँगकर पूरा करते हैं। सूरदास कहते हैं कि गोपियों ने कहा--इसी तरह श्याम से मिलने की हमारी इच्छा जितनी बढ़ती जाती है, उतना ही यह वियोग हमें भारी प्रतीत होता है।