कहाँ गए वह ऊन के गोले
जिनमें धँसा के रखती थी माँ दो सलाइयाँ
जहाँ भी जाती, साथ ही रखती
रोज़ दुपहरी चौक में बैठी
धूप के धागों से वह बुनती थी गरमाहट
जैसे अंगुलियाँ वादक की
वीणा पर है किसी राग को बुनती
वैसी ही गति से, लय से
तुम भी अपना सपना बुनती थी
सोचता हूँ मैं
इससे तेज क्या बुनता होगा
ब्रह्मा सृष्टि के धागों को
पूरा होने पर स्वैटर के
घर में हमारे उत्सव होता
पहन के उसको मैं इतराता
सबको दिखाता
पाँव न होते ज़मीं पर मेरे
मानो माँ ने उस स्वैटर में पंख लगाए
हम चार थे
चारों के बारी-बारी से
पहने जाने पर भी
कुछ कम ना होता उसका नयापन
और जो गरमाहट चारों की
एक ही कोख से जन्मी थी
वो कैसे कम हो जाती उसमें?
अब तो बहुत से स्वैटर
घर में भरे पड़े हैं
पर कहीं न दिखते
ऊन के गोले, चारों भाई और सलाई पर माँ?