भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऊपर उठने पर ही / सांवर दइया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहाड़ पर चढ़ने पर ही
पता चलता है कितना दबा-घुटा
और पिचका-पिचका-सा है शहर

ऊपर उठने पर ही है
खुलेपन और ताजी हवा का स्पर्श
रोम-रोम में पुलक

गैर जरूरी सामान
नहीं साथ कुछ अपने भी
पग-पग पर खुला रहे पृष्ठ
अपरिग्रह की पुस्तक के

यहां-वहां-सी घास
पत्ते त्याग रहे पेड़

मर्मर-ध्वनि से
उपजता मन में स्वर
ऊपर
और ऊपर जाना है अभी !