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ऊपर उठने पर ही / सांवर दइया
Kavita Kosh से
पहाड़ पर चढ़ने पर ही
पता चलता है कितना दबा-घुटा
और पिचका-पिचका-सा है शहर
ऊपर उठने पर ही है
खुलेपन और ताजी हवा का स्पर्श
रोम-रोम में पुलक
गैर जरूरी सामान
नहीं साथ कुछ अपने भी
पग-पग पर खुला रहे पृष्ठ
अपरिग्रह की पुस्तक के
यहां-वहां-सी घास
पत्ते त्याग रहे पेड़
मर्मर-ध्वनि से
उपजता मन में स्वर
ऊपर
और ऊपर जाना है अभी !