ऊ बस्ती: ऊ बास / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
जहाँ रातकोॅ हवाँ सहलाय केॅ सुताय छै,
भोरकोॅ हवाँ झकझोरी केॅ उठाय छै,
हमरा ऊ धरती, ऊ आकाश प्रिय छै!
चरका साफली आ ललका अनारोॅ पर
ठमकै छै ओसोॅ के बुन्द!
फुललोॅ कटेली के झारो सें
उमड़ै छै भीजी केॅ गन्ध!
फुदकै छै हरदिनका बिरनी के झुन्ड।
मेदा के बैंङनी फूलोॅ सें छलकै छै रूप।
मँहकै छै धानोॅ के रून।
जहाँ प्रातकाली लहराय छै,
भैंस, फ्सरोॅ लेॅ डहराय छै,
हमरा ऊ परती, ऊ चास प्रिय छै!
आमोॅ के मंजर सें
रसें-रसें चूवै छै मोॅद।
तवासली पछिया के ताव।
घनगरोॅ ठारी पर
नुकाय केॅ कुहकै छै कोयल।
ओढ़ी केॅ फूलोॅ के साल,
दुलहिन रं लागै छै ललकी कचनार!
जहाँ धापचुरचुर बोलै छै मनॉे के बोल।
जल्दी नै बौंसै छै पड़ुकी अमोल,
पड़ु का केॅ नचाय छै,
सद्दोखिन अगराय छै,
हमरा ऊ रौद, ऊ बतास प्रिय छेॅ!
पीरोॅ मँटमैलोॅ आकाश।
बाँसोॅ के जंङलोॅ में बगुला के बास।
भोरे सें बिछुड़लोॅ
लेरू केॅ चाटै लेॅ-
डिकरली दौड़ै छै गाय।
ऊड़ै छै धूरा के मेघ।
तुलसी के चौरा पर बरै छै दीप।
लोरी में डूबै छै नुनुवाँ के ध्यान।
जहाँ प्रेम उफनाय छै,
लहरै छै, लहराय छै;
हमरा ऊ बस्ती: ऊ बास प्रिय छेॅ।