ऋणानुबंध (कविता) / विमलेश शर्मा
ढुलकती शाम में जब
अनगिनत बातें शहतीरों की तरह
मन को बेध रही थी
दूर कहीं मैंने एक पदचाप सुनी थी!
कोई कृष्णप्रिया ही रही होगी वह शायद!
शायद! इसलिए कि यह विचार एक विशेष मन: स्थिति की उपज है!
संभवत: वह किसी कुंज में विरह गीत बुदबुदा रही थी।
जो लौट रहा था मुझ तक सदियों की यात्रा तय कर!
स्मृति में एक आम्रबौर का गीत ठिठका है
उसी स्थल पर वह भी खड़ी थी
जहाँ किसी ऋणानुबंध का टोटका था!
घिरती शाम में उद्दीप्त थी उसकी साँसें
कि भय था उसे उस तिरस्कार का
जो किसी रिश्ते के साथ ही उसने पाया था!
वह खड़ी रही
लौटती पगडंडी पर पीठ की ओट में
इस अबोध चाहना में
कि कुछ बातें चुपचाप खुले
और चकित करें तो सुख देती हैं।
मुग्धा, विप्रलब्धा सभी नामों के बीच
उसे मानिनी नाम प्रिय था
सो मैंने पुकारा उसे, 'सुनो मानिनी!'
स्वरयंत्र से नि: सृत होते ही
यह शब्द होंठों की दहलीज़ से लौट गया
संशय रहा यही कि
मान शब्द के कोरे अर्थ आख़िर किस युग में जीवित थे
स्मृतियों के गलियारों में वह बूझती रही
वहाँ अक्क थी, मीरां थी पर वे अर्थ नहीं थे
सो!
सब के सब शब्द
डूब गए उन्हीं के निस्तेज अर्थ में!
अधूरी खोज रही और आस के पुलिन टूट गए
अभिमंत्रित इच्छाओं के आगे
प्राथमिकताओं के भुलावे में
धोरे फ़िर छूटे
पर कितना बड़ा है उसका दु: ख
धोरों, नदियों, पहाड़ों और
उस रिक्त आसमां के दु: ख की ही तरह
मैं उसे निस्तेज देख
उसके प्रेम की पूर्णता की कामना करती हूँ
और लौटती हूँ
अपने तुच्छ दु: ख की सहेजन करती हुई
साथ ही छौने में एक अतिरिक्त दु: ख लिए!