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ऋणी अयोध्या / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो

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एक समय के बात अंग में पड़लै महा अकाल।
परजा के दुम्खोॅ सें राजा भेलै बड़ा बेहाल।
शस्य श्यामला धरती पर मचलै भारी धुरखेल।
वै विपरीत समय में मिटलै ऋतु-महिना के मेल।
रोमपाद चिन्तित अखाड़ में मेघहीन आकाश।
एक बुन्द लेॅ व्याकुल धरती मिटलै सब उल्लास।
सब पंडित सें पूछलकै राजा ने-कहोॅ उपाय,
की करला सें यै धरती के सब बेचैनी जाय?
पंडित सभे बिचार करी केॅ बोलै छै-”महाराज!
कश्यप के पोता छै वन में शृंग नाम मुनिराज,
वेद-शास्त्र के ज्ञाता दिग्गज, जोगी महा-महान,
ब्रह्मचर्य, एकान्त निवासी, दुनियाँ सें अनजान,
पिता विभाण्डक केॅ छोड़ौ केॅ नै देखने छै लोग,
नै जानै छै सेवा-पूजन छोड़ी कोनो भोग,
जांे आपनोॅ बेटी शान्ता केॅ मुनि केॅ कन्यादान
दियै करी केॅ, सब तकलीफ दूर क्षण में मतिमान।“
राजा ने मंजूर करी लेलकै पंडित के बात।
मुनि केॅ आनै लेॅ गेलै अप्सरा-किन्नरी साथ।
मुनि ऐलै बरसा भेलै, सुख सें बसलै सब लौग।
शान्ता भेलै निहाल योग से मिललै सुन्दर भोग।
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राजा दशरथ अंगदेश में ऐलै सहित समाज
रोमपाद सें विनय करी केॅ कलकै-”हे महराज!
आय अयोध्या के गोदी छै सूनोॅ बालक-हीन,
महल-अटारी ऐङनोॅ लागै छै एकदम श्रीहीन,
शान्ता-शृंग दया सें हमरा लिखलोॅ छै सन्तान,
विनय सुनाबोॅ मुनि सें हमरोॅ अंगदेश-भगवान।“

व्याकुल राजा के विनती पर मुनि भेलै तैयार,
पुत्र-यज्ञ सें महाराज केॅ मिललै चार कुमार,
विदाकाल में गद्गद् वाणी बोलै छै रघुराज-
”ऋणी अयोध्या अंगदेश के जन्म-जन्म मुनिराज।“