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ऋण का मेला / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
ऋण के मेले में सजाई जाती हैं आकांक्षाएँ
पतंग की तरह उड़ाये जाते हैं सपने
मोहक मुस्कुराहट का जाल फैलाया जाता है
और मध्यवर्ग का आदमी
हँसते-हँसते शिकार बन जाता है
ऋण के मेले में हर चीज़ के लिए
आसानी से मिल जाता है पैसा
गृहिणी की जरूरत हो या बच्चों की हसरत हो
मेले में सारी इच्छाएँ आसान शर्तों पर
साकार हो जाती हैं
विज्ञापनों का चारा फेंककर मेले में
आकर्षित किया जाता है ऐसे लोगों को
जो ज़रूरतें तो किसी तरह पूरी कर लेते हैं
मगर स्थगित रखते हैं इच्छाओं को
मेले में आकर ऐसे लोग हँसते-हँसते ही
बंधक बना देते हैं अपने भविष्य को।