ऋतुराज को आना पड़ा है / ऋता शेखर 'मधु'
फिर वाटिका चहकी ख़ुशी से, खिल उठे परिजात हैं।
मदहोशियाँ फैलीं फ़िजाँ में, शोखियाँ दिन रात हैं॥
बारात भँवरों की सजी है, तितलियों के साथ में।
ऋतुराज को आना पड़ा है, बात है कुछ बात में।
मीठी बयारों की छुअन से, पल्लवित हर पात है।
ना शीत है ना ही तपन है, बौर की शुरुआत है॥
मौसम सुहाना कह रहा है, कोकिलों! चहको जरा।
परिधान फूलों के पहनकर, ऐ धरा! महको ज़रा।
शीतल नदी बहने लगी है, पर्वतों के पार से।
संगीत की वीणा सजी है, पीतवर्णी हार से॥
होने लगे हैं वन पलाशी, वीरता का राग है।
आसमाँ भी है परागी, झूमता-सा फाग है॥
हुड़दंग गलियों में मचा है, टोलियों के शोर हैं।
क्या ख़ूब होली का समाँ है, मस्तियाँ हर ओर हैं॥
पकवान थालों में सजे हैं, मालपूए संग हैं।
नव वर्ष का स्वागत करें हम, फागुनी रस रंग है॥
आजान गूँजे मस्जिदों में, मंदिरों में घंटियाँ।
मीठा मधुर संगीत बन के, भाव प्यारा हो बयाँ॥
भारत वतन समभाव का है, हैं विविध से गीत भी।
सद्भाव बहता है रगों में, है दिलों में प्रीत भी॥