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ऋतु-ऋतु में खोजौं तोरा / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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ऋतु-ऋतु में खोजौं तोरा

हमरा भुलाय दै वाला, हे हमरॅ प्रीत
तोरा सें बिछुड़ै के दर्द केॅ हृदय में समेटनें
आय तलक जिन्दा छी हम्में
मतुर सच में की हम्में जिन्दा छियै?
ऋतु-ऋतु में खोजै छी तोरा।
तहियो की पावै छी तोरा

पिया, ई ग्रीष्म ऋतु छेकै
हम्में रात भर नै सुतली छी
की करियै, नीन्दे नै आबै छै
रातैं बोललै कौआ
हम्में नै कहेॅ पारौं कि रातैं कैन्हेॅ बोललै कौआ
मतुर ई जानै छियै
कि रात में कौआ के बोलबॅ अपशकुन होय छै
अतना सोचथैं डरी गेलियै हम्में
आरो छर-छर चुवेॅ लागलै हमरॅ देहॅ से घाम।
भोरेधरी पड़ोकी बोललेॅ
शायद पीड़ा सें वही ओकलैलॅ छेलै
मतुर जब भिआन होथैं बगरो करलकै चूँ-चूँ

तबेॅ मिललै हमरा तरान
मनॅ केॅ मिललै ठाँव।

ई गरमी के दिन पिया
लागै छै रहेॅ हमरे बिरह के आग
सूरज वहेॅ रं उगलॅ आबै छै
जेना पूरब के आकाश में आगिन लागलॅ रहेॅ
हाय बिरही सुरूज
अपने भीतर के आगिन सें आगिन होय गेलॅ छ
कि चाही केॅ भी नै मिलेॅ पारै छै कहियो
-अपना प्रेयसी साँझ सें
आगिन के पिन्ड होय गेलॅ छै सूरूज बिरहे सें
पिया, आय हमरॅ देह आरो मॅन दूनो आगिन नांकी दहकै छै
सोचै छियै,
कांही तहूँ भी सुरूजे नांकी दहकतेॅ होभौ।
भिनसरवैं जे बहै छै मन्द-मन्द मलय पवन
वहूँ देहॅ केॅ ठंडाब कहाँ पारलकै
हमरै साँसॅ सें वहो गरम होय गेलॅ छै

ई जेठ आरो बैशाख रॅ तपलॅ दूपहरिया
पिया हमरे विरह के आग छेकै
आरो आय ई ग्रीष्म
हमरे सें पाबी केॅ आग हमरै जराबै छै
आरो ई जोर-जोर सें बहै वाली पछुवा हवा
जेनां यमॅ रॅ जी रहेॅ
की विषबुझलॅ छुटलॅ छै हमरा पर तीर
निर्दय निपुण सौतारॅ के

द्वारी पर खाड़ी होयकॅे
देखै छी उठतेॅ बिन्डवॅ
दूर-दूर तांय ताकै छी
काहीं कोय ने
ई ग्रीष्म नें तेॅ दुबड़ी तक केॅ जराय देलॅे छै
सुनसान बहियारॅ में दौड़ै छै खाली रौद
जेनां कोय औघड़ आपनॅ हाथॅ में
लहकी रहलॅ आगिन सें भरलॅ धुपौड़ी लैकेॅ

घुमना के धुँआ उड़तेॅ रहेॅ
आरो हेना में हम्में असकल्ली!

बेली, गेंदा, कटहल, चम्पा, नीम, कनेर, रजनीगंधा के फूल
-डाल-डाल पर खिललॅ छै
बढ़ाबै छै सभ्भैं मिली केॅ ग्रीष्म के शोभा
एक दिन वह छेलै कि हम्में तोड़ै छैलियै
साजी भरी-भरी फूल
आरो गजरा सें बालॅ केॅ सजाबै छेलियै
गूथ छेलियै रीची-रीची बढ़िया सुगन्धित फूलॅ के माला
शिव केॅ चढ़ाय लेॅ
तोरा पिन्हाय लेॅ
हिया जुड़ाय लेॅ
आय तोहीं नै तेॅ, ई सब कथी लेॅ

हमरॅ मन, चकोर तेॅ छै अय्यो भी
मतुर चान्दे नै छै हमरॅ
सौंसे सृष्टि घोर अन्हारॅ सें भरी गेलै छै
प्रीतम साँझ आरो भोर के पते नै चलै छै
लागै छै हरी-घुरी करैजॅ खखोरतेॅ रहेॅ
अगोरी के राखलेॅ छियै लोर
जबेॅ एकरा दुलारॅ सें कोय पोछै वाला ही नै छै
तेॅ यें बहिये केॅ की करतै?