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ऋतु चर्चा / अम्बिका दत्त

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पेड़ की सबसे ऊपर की टहनी पर
फूटती है/
जब मुलायम कोंपल
मेरे अन्दर जागती है
नीम गर्म चैत की आग
अन्दर ही अन्दर फैलने लगता है
अनागत, ऋतवत् संगीत

हवा, दूर-दूर तक फैला देती है
अपने रेशमी, सुगंधित अयाल
क्षितिज पर खड़ा होता है/कोई
लिये हुए
सांवरी, सलोनी, काजली-गुलाल

रूक-रूक कर चलता है
अनुगूंजों का क्रम
थम-थम कर/वक्त देता है थाप
न जाने क्यों/अनवरत बहते-बहते
नदी, ठिठक कर
अपने ही बारे में सोचती है कुछ
अपने आप।