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ऋतु शृंगार में खण्डित नायिकाएँ / राजकमल चौधरी

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अलकनन्दा दास गुप्त के लिए

एक

जिनके पास अपने व्यक्ति अथवा अपनी इच्छाओं का कोई अतीत नहीं होता, वे ही लोग किसी न किसी भविष्य के चमत्कार, एवं कर्म-फल के नियतिवादी सिद्धान्त में आस्था रखते हैं। आस्था रखने के लिए अलकनन्दा, मेरे पास और कोई भविष्य नहीं है। केवल वर्तमान है। अतीत से भी अधिक प्रामाणिक और विवेक-निर्देशित है मेरा यह वर्तमान। स्वस्थ किंवा अस्वस्थ किन्हीं भी कारणों से तुम हम लोगों का भविष्य बनना चाहती हो — किन्तु, यह सम्भव नहीं है इच्छा-अनिच्छा से, कारण-अकारण से तुम्हें वर्तमान ही बने रहना होगा, अगर तुम अतीत बनने से असहमति देना चाहोगी ।

स्थान, काल और पात्र की नियति नहीं होकर भी, इनकी संगति यही है । तुम्हारी सुन्दरता और वासनाएँ, मेरी वासनाएँ और कविता, हम लोगों की कविता और व्यवहार-पद्धतियाँ इसी एक वर्तमान संगति के नियम से चलती हैं। हेनरी मिलर ने इसी को समुद्र के अनन्त अन्धकार में तैरते हुए मृत शरीर का संगीत कहा है। यह मृत अमरत्व वर्तमान में, सामुद्रिक अन्धकार में तैरते हुए ही प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी भविष्य-तिथि की काल्पनिक संहति में नहीं ।

मेरी कविता और मेरी वासनाएँ मेरे लिए क्रमशः प्रथम और अन्तिम वर्तमान हैं। तुम इनमें, अर्थात् इनमें किसी एक में शामिल हो सकती हो हम लोगों के साथ-इन्हें अपने और — अथवा हम लोगों के भविष्य में शामिल नहीं कर सकतीं। ऐसा करना वर्तमान को ग़लत करना होगा।

दो

ऋतु-शृंगार में नायिकाएँ तिलक-कामोद वसन नहीं पहनें केवल पहनें
अपनी पारदर्शी त्वचा
उपगुप्त कुमारगिरि अजातशत्रु के आगमन-उपरान्त
उतारकर त्वचा-कवच अस्थि-आयुध
कामप्रद निर्मोक — नृत्य में फलवती हों नायिकाएँ
देह-चक्रव्यूह से बाहर आएँ मोह-स्खलित
खण्डित हों —

दशाश्वमेध के एकान्त में अधडूबी सीढ़ियों से नीचे गंगाजल में पाँव
फैलाए हुए हम लोगों ने यही निर्णय लिया था
तीसरे ब्रह्माण्ड में बन्द
चन्द्रमा वीनस और मंगल नक्षत्रों की भविष्य-गणना करके
एक साक्षर ऋतु के गर्भपिण्ड से दूसरी
ध्वनि मुक्त ऋतु की गर्भशिला पर स्थापित करने के लिए
इच्छाएँ
सप्त शून्यों की नीली गोलाइयों में
आरोपित करने के लिए समत्रिबाहु त्रिकोण प्रत्येक कोण में डूबी हुई
एक सर्पजिह्वा एक सर्पमुख
प्रत्येक कोण में ऋतु-चक्रित एक अष्टधातु सर्पविवर
और यह समस्त ज्यामिति-चेष्टाएँ
प्रजापति-यज्ञ में स्वेच्छा भस्मित सती-वर्तमान का शव-शरीर
84 टुकड़ों में
वैष्णवी आदि शस्त्र से खण्डित करने के लिए

...यहाँ कटकर गिरे थे ग्लोब के अर्द्ध-स्तन गोलार्द्ध
यहाँ गिरा था सती का स्कन्ध-ग्रीव
वर्तमान यहीं गिरा था ।
योनि-कामाख्या

तीन

अलका कँचन मौलश्री जगमोहन कल्याणी राजकमल कितने सुन्दर थे ।
काल्पनिक संज्ञावाचक ये नाम
प्रथम-पुरुष में अथवा प्रथम-स्त्री में सम्बोधन के लिए
हम लोगों ने
इन्हीं नामों से कर लेना चाहा था ऋतु-शृंगार
मार्क्विस साद के वीनस-मन्दिर में
अष्टधातु सर्प विवरों की स्वप्न-सम्भव स्थापना एक ऋतु से
दूसरी ऋतु
एक त्रिकोण से दूसरे त्रिकोण में जाते हुए
गंगाजल ने काट डाले किन्तु हम लोगों के पाँव नीली गोलाइयों की
घाटी में डूब गए
हमारे नक्षत्र हमारे इन्द्रधनुषी गाँव
अब काल-परिधि से टूट कर बाहर आ गया है सम्पूर्ण वर्तमान
ग्लोब के अर्द्ध-स्तनों में अन्धकार है
ब्रह्म-कुण्डलिनी से
बुद्धि-सहस्रार की ओर धावित शत-सहस्र शिरासर्प मूर्च्छित हैं
समर्पित हो चुकी हैं सुविधा तन्त्रों के प्रति
रहस्य सिद्धियाँ
तीसरे मस्तिष्क में कहीं नहीं जाज्वल्य है कौस्तुभ-मणि
मात्र शारीरिक व्यवसाय रह गया है
ऋतु-शृंगार
खण्डित नायिकाएँ धारण करती हैं नील वसन चन्दन अनुलेपन
रक्तकुसुम मालाएँ मात्र आत्म-रक्षा के लिए

चार

शारीरिक अस्तित्व-रक्षा के असत्य से तीसरे ब्रह्माण्ड तीसरे मस्तिष्क का
असम्भव
कितना अधिक आवश्यक है
मेरे लिए क्यों स्वीकार करेंगे नाटक ओथेलो-विक्रमोर्वशीय
वेणी संहार के पात्र-उपपात्र
जब तुम अलकनन्दा तुम भी जब यह ऋतु-संहार अपने दैहिक
सत्यों के विलयन में नहीं उपनयन में
स्वीकारती हो सहज सहर्ष
ऋतु-शृंगार
अस्थियान पर आरूढ़ अस्थि शास्त्रों से आक्रमणकारी उस
महाइन्द्र के स्वार्थ स्वागत के लिए
ऋतु-शृंगार

पाँच

हम लोगों के पितामह ने समय यापन के लिए सुविधाप्रद गढ़े थे
कई शब्द मूल्यों के आस्था के कर्मों के
व्यवस्था के
भीष्म जनमेजय नहीं शान्तनु पंच-पाण्डव धृतराष्ट्र ये हमारे पितामह
हमारे पिता थे अभिमन्यु पितामह परीक्षित
किन्तु
हम लोगों ने अपने पाँवों के नीचे मृत गंगाजल बने हुए
मूल्यों की आस्था और कर्मों की
व्यवस्था
शब्दों को अस्वीकार किया
अपनी कविता और अपनी वासनाओं के कारण हम लोगों ने तुम से
कहा अन्ततः शब्दों स्थितियों घटनाओं वस्तुओं और
स्थानिक स्वथविर काल पात्रों से नहीं
इनकी अन्तःसलिला
रहस्यवती योनि-कामाख्या सती वर्तमान ब्रह्म-कुण्डलिनी से
हम लोगों का शक्ति-शव साधकों का अवतार
लेता है —
शब्द
सर्वप्रथम और सर्वान्तक वह
शब्दलिंग
हमारे अस्तित्व का कारण और हमारे जीवन की धारणा
वही है वही होता है
प्रत्येक सृष्टि के मन्वन्तर में
शून्य के स्वर में
हम लोग अतएव शब्द नहीं गढ़ते हैं इसके विपरीत शब्दों को
उस एक महाशब्द में करते हैं समाहित
अतीत और भविष्य के
स्थान कालपात्रों को सती की योनि-कामाख्या में
तिरोहित करना है
हम लोगों का एक मात्र धर्म
पितामह पिता क्षमा करें महाभारत-विजय का अनासक्ति योग
हमारे लिए निरर्थक है
निरर्थक है हमारे लिए आत्मरक्षात्मक
ऋतु-शृंगार की खण्डित 84 टुकड़ों में विभाजित
नायिकाएँ...