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ऋतु संहार / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
मनमानी करते मौसम का
कैसा गुस्सा, कैसा प्यार?
आई नदी ले गई खुशियाँ
रेत दे गई द्वारे,
धरे हाथ पर हाथ खड़े हैं
तट के पेड़ बिचारे,
गिरगिट-से मेघों का
क्या स्वीकार, क्या इन्कार?
साँपों की केंचुलें नीड़ में
पर खुजलाते पक्षी,
अंधी बस्ती में गूँजे स्वर-
मीनाक्षी - मीनाक्षी,
बालू की दीवारों पर
बूँदों के बन्दनवार।
सपने व्यथा-वियोग सौंपते
मिट्टी भरती साँसें,
कंधे शव, ओठों सच्चाई
हाथों फूल-बताशे,
एक आँख में मेघदूत
दूजी में ऋतुसंहार।