ऋत्विक पर्व / ओमप्रकाश सारस्वत
जब भी आकाश पुष्प झरता है 
धरा पर तभी उगते हैं ये बर्फ के फूल 
हरे वृक्षों पर 
टीन की लाल छतों पर  
काली चिमनियों पर 
स्थल पुण्डरीकों की तरह 
जो सूरज का स्पर्श पाते ही 
मुरझा जाते हैं 
(शर्म के मारे पानी-पानी होकर) 
क्या तुमने देखा है कभी 
यह विराट ऋत्विक पर्व 
अरे, इसे चतुर्दिक देखने के लिए 
बर्ष महोदय ने 
(साल भर तपस्या के वरदान स्वरूप) 
तीन सौ पैंसठ आँखें माँगी थीं ख़ुदा से 
और कहा था 
कि हर रोज़
आँख़ों देखी ख़बरों की तरह
पहुँचाता रहूँगा 
प्रकृति का नव-नव समाचार 
पर दुर्भाग्य कि 
जिस दिन भी यह पुण्य पर्व आता है 
उसकी सहस्ररश्मि आँखों में 
श्याम बादलों का काला मोतिया उतर आता है 
(यद्यपि वह दूसरे ही दिन भला-चंगा हो जाता है ) 
पर देखने वाले 
इन्हीं दो आँखों से देख लेते हैं यह अनुपम पर्व
(ज़्यादा माँगने से महत्व के दिन ही कंगाली आती है) 
देखो किस प्रकार 
इस प्राकृतिक यज्ञ में 
अतिथियों के लिए बिछ गया है 
एक सफेद दूधिया ग़लीचा 
देवदारू स्वागत कर्ताओं की तरह स्नेहवश 
किस तरह हाथ जोड़े खड़े हैं सफेद पगड़ी में 
धरती किस प्रकार सँवर गयी है 
सद्यः स्नाता-सी होम करने को सफेद धोती में 
और डालियाँ, पौर कन्याओं-सी 
बरसा रही हैं आते-जातों पर हिमलाजा 
देखो तुम भी इसी शुभ्र यज्ञ में 
कीर्ति पटल में धर लो पाँव 
अन्यथा जीवन, इन्हीं श्यामल घाटियों में 
परछाईयों की तरह हो जाएगा विलीन
और तुम आजन्म तरसते रहोगे 
हिम पर, धूप की तरह 
चाँदनी बन कर खिलने को
	
	