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ऋषि आश्रम में अम्बा / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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चलते-चलते अम्बा को ऋषि आश्रम पडा़ दिखयी
मन मन्दिर में आषाओं की रजत किरण मुस्कायी।
प्ुाष्प लताओं, कुञजों से आश्रम-श्री उत्कर्षित है।
शीतल वट, पीपल, रसाल से शान्ति सहज हर्षित है।

यत्र-तत्र तुलसी के चौरे पूजित अभिवन्दित हैं,
अगरू धूम से पूर्ण सुगन्धित तृण-कुटीर शोभित हैं,
यहाँ सूत्र संस्कृित के पावन प्रगति चरण पाते हैं,
यहाँ प्रदूषण सपने में भी नहीं कभी आते हैं।

दूर नदी का तट पुनीत पावनता का आगर है,
लहर-लहर पर वैदिक मन्त्रों का गुंजन अक्षर है।
फूलों के किरीट वृक्षों के सिर पर सजे हुए हैं,
नव कोमल कलिकाओं के दल यौवन छुए-छुए हैं।

फूलों से शृंगार लताओं के भी सँवर रहे हैं,
स्ुर बालाओं के दल मानो नभ से उतर रहे हैं।
मृगषावक, गोवत्स कुलाँचे चंचल मार रहे हैं,
कहीं-कहीं पर वटुक यती कर उन्हें दुलार रहे हैं।

दिव्य गन्ध-निर्झर-से शोभित यज्ञकुण्ड हैं पावन,
नन्दनवन की शीतलता से भरे हुए हैं चन्दन।
सहकारों से कोकिल की मृदुतान मुखर होती है,
मधुर-मधुर रसधार चेतना सतत यहाँ ढोती है।

जहाँ विवेकानन्द ज्ञान मन्थन से उमड़ा करता,
मानव में मनुजत्व तत्व देवत्व सहज है भरता,
सामगान से जहाँ सतत दूषट विनष्ट होते हैं,
स्वास्थ्य-रत्न उल्लसित हो रहे रोग दोष रोते हैं।

जहाँ दिव्य चेतना विहँसती रहती है कण-कण में।
जीवन-मूल्य समुन्नति पाते रहते हैं क्षण-क्षण में।
जहाँ प्रतिक्षण सत्वगुणी धारा बहती रहती है।
जिनसे हो जीवनोन्नयन वे सूत्र सदा कहती है।

धन्य सनातन संस्कृति जिसने यह परिवेष दिसा है।
भारत का ही नहीं विष्वभर का उपकार किया है।
भारतीय संस्कृति समग्र मानवता का दर्पण है।
इसके चरणों पर श्रद्धा का भाव-सुमन अर्पण है।

यहाँ सभ्यताएँ आकर सद्भाव ग्रहण करती हैं।
यहाँ समन्वय की धरती पर समता अंकुरती है।
यहाँ चरित्र और संयम के उज्ज्वल रजत-षिखर हैं।
यहाँ सुदृढ़ नैतिकता के सम्बलित मनोहर स्वर हैं।

यहाँ विष्व-बन्धुत्व शान्ति अंचल में पुलक रहा है,
यहाँ ज्ञान का स्वर्ण-कलष उन्नत हो चमक रहा है।
यहाँ धर्म की ध्वजा समुन्नत हरपल मुस्काती है,
यहाँ शान्ति की शक्ति निरन्तर अमरत बरसाती है।

आज उसी सुन्दरी सभ्यता के दृग अभिसिंचित हैं,
नैतिक पतन घोर अलगावों से हरपल चिन्तित हैं।
हाय! संक्रमण के इस युग में अन्धकार छाया है,
घेरे हुए मनुजता को कर रही तृसित माया है।

आज नीति, अध्यात्म, धर्म, दर्षन, कृृषकाय हुए हैं,
भक्ति और श्रद्धा के पावन स्तर निरूपाए हुए हैं,
संस्कृत के सोपान रूग्ण जर्जर होते जाते हैं,
और न शष्यष्यामला भू पर औषध तक पाते हैं।

गुंजित था विचार मन्थन से अम्बा का उर-अन्तर,
तभी वृद्ध संन्यासी आते हुए मिल गए पथ पर।
" हे ऋषिदेव! प्रणाम तुम्हें यह उपेक्षिता करती है,
चरण-षरण के लिए निवेदन निवेदिता करती है। "

" मंगल हो कल्याणी! तुम्हारा सदा-सदा मंगल हो,
त्याग तपस्या से उन्नत जीवन अखण्ड उज्ज्वल हो,
शुभानने! तुमने कुलीनता का तो हर लक्षण है,
बेलो तो किस हेतु हो रहा एकाकी विचरण है?

ज्ञानी, सन्त, मुक्त विचरण से उत्तम यष पाते हैं,
किन्तु शास्त्र नारी विचरण को दुःखद बतलाते हैं।
उसे घोर अपमान और अपयष ही बस मिलता है
जीवन में फिर नहीं मान का श्री पाटल खिलता है।

देवि! कौन-सा कारण तुझको इधर खींच लाया है?
राजभवन को छोड़ सन्त आश्रम क्यों मन भाया है।
किस कुल की हो दीपषिखा, वह कौन देष पावन है?
किस नृप की हो सुता, किसलिए धूमिल चन्द्र्रानन हैं?

छवि नभ पर क्यों घिरे हुए युग दृग सावन घन से हैं
दीन-हीन-सी कान्ति कह रही दुखित आप मन से हैं। "
" काषिराज की पुत्री हूँ ऋषि! अम्बा कहलाती हूँ,
हतभागिनी परित्यक्ता घुति हीन दिया-बाती हूँ। "

" शुभे! तुम्हें किसने त्यागा है और कहो किस कारण?
बतलाओें तो हो सकता है कुछ कर सकूँ निवारण।
परसेवा के लिए नदी तरू साधु हुआ करते हैं,
औरों की पीड़ा समेटकर अपना घर भरते हैं।

ऋषि सदैव पर पीड़ाओं के अम्बुधि पी जाते हैं,
शान्ति-सुख-सुधा बाँट लोक में खुद भी हरषाते हैं।
मैं ऋषि नहीं किन्तु ऋषि सेवा में तत्पर रहता हूँ
परमानन्द मगन मन से गुरूचरण नित्य गहता हूँ।

घोर मान अपमान धरा पर सब कुछ सह सकता हूँ,
किन्तु किसी की आँखों में आँसू न देख सकता हूँ।
परसेवा मानव जीवन का धर्म परम पावन है,
इससे बढ़कर कहाँ धरा पर जप-तप होम-हवन है? "

" टूटा हुआ डाल का पत्ता अब मेरा जीवन है,
अंगारों-सा धधक रहा निज मन का नन्दभवन है।
किसे दोष दूँ ऋषिवर! मेरा ही कुछ कर्म घटा है
जिसके कारण इस जीवन में संकट आन अटा है।

मैं हूँ अबला अश्रु और ममता मेरे भूषण हैं
दुष्ट दुराचारी होकर भी नर में कब दूषण हैं?
नर समर्थ सब भाँति शक्ति सत्ता का अधिनायक है,
उसकी महिमा का वसुधा पर कौन नहीं गायक है?

नारी तो बस अश्रुसिन्धु की मीन हुआ करती है,
आशाओं के तृण-कुटीर में जीती है मरती है। "
रों-रोकर अम्बा ने अपनी सारी कथा सुनायी,
सदय साधु के उर-अन्तर करूणा अपार उग आयी।

" शुभे! जिन्दगी सुख-दुख दोनों पखवारों का घर है,
इस परिवर्तनशील प्रकृति में कुछ न कहीं अक्षर है।
जीवन है वह पंथ कठिन वैषम्य जहाँ चिर सहचर
कहीं मिले विषकूप तो कहीं मधुर सुधा के निर्झर।

कहीं तप्त मरू कहीं वृष्टि के शीतल पर्व सजे हैं,
कभी-कभी चाहे-अनचाहे बाजे कभी बजे हैं।
जीवन में वसन्त-पतझर क्रम से आते-जाते हैं,
किन्तु समय से अधिक नहीें क्षण भर भी रूक पातें हैं।

नियति-चक्र है सबल सभी विष-अमरत है पी जाता,
उसकी सूक्ष्म अपार दृष्टि से कौन यहाँ बच पाता? "
व्यथा-कथा अम्बा की सुनकर व्यथित हुए ऋषि, मुनि, यति,
प्रस्तुत करने लगे सभी थे अपनी-अपनी सम्पत्ति।

चिन्तन करने लगे किस तरह समाधान सम्भव हो,
अम्बा के जीवन का पादप हरा-भरा झंकृत हो।
गहन विचार-विमर्श चल रहा था आश्रम पा्रंगण में,
उचित व्यवस्था की जाये अम्बा के संरक्षण में।

परम पूज्य राजर्षि होत्रवाहन जी वहाँ पधारे,
अभिनन्दन कर उठे सभी ऋषि, गूँज उठे जयकारे।
दरस-परस-मज्जन पूजन आसन आचमन समर्पित-
किया पूज्यवर को ऋषियों ने, सभी हो उठे हर्षित।

" वन्दनीय ऋषियों! बोलो छायी क्यों यहाँ निराशा,
किस संकट के कारण बदली-बदली है सब भाषा।
या कि किसी भावी अनिष्ट से दुखित और चिन्तित हो,
या कि शाप से किसी किद्ध के तुम सब हुए व्यथित हो? "

" नहीं-नहीं श्रीमान! नहीं चिन्ता का यह कारण है,
आया है संकट विचित्र अति जिसका विस्तारण है,
लोकमुक्त होकर ऋषि करता नित लोकोंद्धारण है,
प्रभो! आगमन नहीं आपका, यह तो निराकरण है। "

" ऐसा कौन पडा़ है संकट ऋषि विमुक्त चिन्तित हैं,
समाधान जो स्वयं धरा पर वही समस्यावृत हैं।
क्हो ऋषिगणों! कौन समस्या के घन घिरे सघन हैं;
जिसके कारण तेजहीन हो रहे दिव्य आनन हैं। "

" सकल सृष्टि निर्झरी लोक में फिर से तृषित हुई है,
तिरस्कृता अम्बा बाला जीवन से व्यथित हुई है।
मनोनीत भावी भर्ता श्री शाल्व नहीं वर पाये,
उससे पहले बल विक्रम से भीष्म हरण कर लाये।

शाल्व और गंगासुत सबने इसका किया निरादर,
अपनाया न किसी ने इसको दिया दुखों का सागर।
बाला है इसलिए शेष जीवन की कठनाई है,
पीड़ित होकर राजमहल से आश्रय में आयी है।

लोक-लाज के कारण कैसे कहीं और को जाती?
कहो किस तरह पिता भवन में ढौर ठिकाना पाती?
अम्बा का भावी जीवन ही यहाँ घोर चर्चित है,
समाधान के लिए प्रवर! सब ऋषिमण्डल चिन्तित है। "

" अबला! तू सबला होकर भी अबला रह जाती है,
ठस विडम्बना को अबोध तू समझ नहीं पाती हे।
ममता, क्षमा, दया, करूणा सब तुझमें सदा निवसते,
किन्तु क्रोध के बाज नित्य ही मर्यादा में रहते।

कन्या-रत्न-कुलीन सर्वविध मंगल पावित्री है,
काशिराज की पुत्री यह तो मेरी दौहित्री है।
निम्न आचरण देख मनुज के मैं भी दुख पाता हूँ,
नहीं समर्थ शुभे! मैं फिर भी साधन बतलाता हूँ।

परशुराम ऋषिश्रेष्ठ ज्येष्ठ शास्त्रज्ञ शस्त्र ज्ञाता हैं,
धराधाम पर विप्रवंश के महामहिम त्राता हैं।
जिनके प्रखर परशु से कम्पित हुई धरा थी सारी,
जिनके बल आतप से झुलसी क्षत्रीय कुल फुलवारी।

परशुधार से जिनकी सर्जित ब्रह्मपुत्र का पथ है,
उनके पग जिस और पड़े वह परमश्रेष्ठ सत्पथ है।
युद्धविशारद भीष्म शिष्य उन धर्मधीर ऋषि का है,
डनकी गुण गरिमा का वर्णन करे न वश कवि का है।

परशुराम ऋषि हैं अग्रज हैं मेरे शुभचिन्तक हैं,
नीति, धर्म, विज्ञान, ज्ञान, तप, संयम के साधक हैं।
आदेशित यदि करें भीष्म को तो वे झुक जायेंगे,
गुरूआज्ञा को किसी तरह वे टाल नहीं पायेंगे।

वे चाहे तो तेरे दुख की मावस छट जायेगी,
हँसती हुई चन्द्रिका फिर से जीवन में आयेगी,
ज्योति-पर्व सोल्लास रास से मुखर मुस्करायेंगे,
जीवन में वसन्त हँस-हँस कर मधुर गीत गायेंगे।

परशु कृपा से दिवस स्वर्ण सब तेरे हो जायेंगे,
फिर न कभी संकट-घन जीवन अम्बर पर छायेंगे।
नारी तो मर्यादाओं से सदा बँधी रहती है,
जीवन धारा सुख-दुख कूलों मध्य सतत बहती है।

मनोजगत नारी का जब भी अनियन्त्रित होता है,
जगता है दुर्भाग दिनोंदिन सम्वर्द्धित होता है।
शील और संकोच विवश हो नेत्र मूँद लेते हैं,
खुशियों के कचनार ध्वस्त कर, वर बबूल लेते हैं।

भद्रे! इस वसुधा पर आने का विशेष कारण है
स्ंचित कर्मों का भू पर ही होता निस्तारण है।
माटी का काया माया बिन भोग कहाँ सम्भव है,
बिना भोग निःशेष, कहाँ सम्भव चैतन्य-विभव है?

पुष्प-पाप दोंनो से होकर मुक्त परम गति मिलती,
नर-तन में आकर जीवात्मा दिव्य कमल-सी खिलती।
सुख-दुख दोनों नित्य फूल से खिलते झड़ जाते हैं,
भला एक से दिन जीवन में किसके रह पाते हैं?

वही परमसत्ता अनन्त है जो सबकुछ करती है,
माटी की काया निमित्त है जीती है मरती है।
सकल योनियों में तो केवल भोग रोग केवल हैं,
और श्रेष्ठ नर तन में कुछ परिमार्जन भी सम्भव है।

यही कामना, दुख न छू सके स्वर्ण पर्व जीवन के,
जीभर कर भोगूँ अखण्ड वैभव सुख नन्दन वन के।
किन्तु लेख विधि के न रंच भी घटते घट-विघटन के,
यघपि नर उपाय करता रहता है संख साधन के।

भद्रे! अचिर मही है इस पर चिरता कहाँ धरी है?
तृष्णाओं की घोर सघनता दुख तम तोम भरी है।
करती नहीं विलम्ब एक क्षण भोग भाव धारा है,
जीवन का प्रकाश हर, देती सघन दैन्य कारा है।

अन्तस की चेतना अनसुनी होती है इस कारण,
भ्रमित किये रहता है मन कोमाटी का आकर्षण,
और नहीं वह कभी तृप्ति का अणु भी दे पाता है,
तृष्णाओं का ज्वार जगाकर जर्जर कर जाता है।

हो जाते हैं स्वप्न महल सब ध्वस्त क्षणिक निद्रा के,
फिर भी खुलते नहीं कभी पट मन की कटु तन्द्रा के।
इसीलिए सुख दुख के लघु सोपान मिला करते हैं,
भ्रामक अरूणिम जलज गन्ध के नित्य खिला करते हैं। "

ऋषिमण्डल के मध्य होत्रवाहन जी बोल रहे थे,
अम्बा के अन्तस में आशा का रस घोल रहे थे।
तभी बटुक साभार प्रणत हो ऋषिमण्डल में आया,
परशुराम के शुभागमन का शुभ सन्देश सुनाया।

बोला ' कल ही महामहिम ऋषि परशुराम आयेेंगे,
पावन पद रज से आश्रम को धन्य बना जायेंगे। '
बटुक गिरा से ऋषिमण्डल में हर्ष अपार जगा था,
अम्बा के दुख निराकरण का साधन-घन उमगा था।

हर्षित हुए होत्रवाहन बोले ' अनुकूल समय है,
इससे सहज सिद्ध होता है ईश्वर बड़ा सदय है।
घर बैठे ही इष्ट हमारा प्रभु ने आज किया है;
अपनी परम कृपा का सुन्दर मूर्त प्रमाण दिया है। '

होते ही प्रभात प्राची ने अरुण दृगंचल खोले,
अरुणचूड भैरवी राग में मधुर सुधारस घोले।
रश्मि तूलिकाओं ने अभिनव रंग भरे जगती में,
गूँज उठे जागरण मऩ्त्र शुभ वसुधा मौनव्रती में।

परशुराम दिनमान चेतना रहे प्रसारित कर हैं,
ओज-तेज-पौरुष-विवेक-बल, कण-कण रहे प्रसर हैं।
पग-पग पर अभिनन्दन करते लता, वृक्ष पाटल बर,
पवन प्रसून बिखेर बनाता पथ को सहज मनोहर।

कर में लप-लप परशु बिजलियाँ तोड़ रहा है हरपल,
जिसकी समता करे धरा के किस आयुध का है बल?
विश्वजयी वह परशु प्रखर अतुलित अजेय अविकारी,
त्राता विशद ब्रह्मकुल का मानो सहस्र फणधारी।

जिसकी प्रखर धरा से धरती नभ काँपा करते थे,
जिसकी चमक देखकर ही क्षत्रिय समस्त डरते थे।
बल विक्रम अभिमान दर्प का पंक हटाने वाला,
धराधाम पर ब्रह्मज्ञान की ज्योति जगाने वाला।

जैसे जगत चमक उठता है दिनमणि के आने पर,
जैसे निशा पुलक उठती तारक विधु मुस्काने पर,
जैसे बाग प्रफुल्लित होता वासन्ती छवि पाकर,
जैसे गीत सँवर उठता है रागायित होने पर।

जैसे जग उठती उमंग यौवन के प्रथमागम से,
जैसे मन भूषित हो उठता सदाचरण अनुपम से,
विहँस उठा ऋषिमण्डल त्यों ही परशुराम आगम से,
स्वागत में उठ खड़े हुए ऋषि प्रवर समस्त स्वयं से।

गूँज उठा ऋषिधाम स्वस्तिवाचन का मंगल स्वर है,
पाद्य, अर्घ्य, आचमन निवेदित किया गया सत्वर है।
आसन देकर ऋषियों ने नैवेद्य सद्य अर्पित कर,
नमन निवेदन कुशल क्षेम सविनय था पूछा सादर।

ओज-तेज-पौरुष प्रताप का ज्वारिल सिन्धु सँवारे,
हर्षित होकर परशुराम ने सुन्दर वचन उधारे।
" आज विधाता ने हमस ब पर कृपा कटाक्ष किया है,
एक साथ इतने ऋषियों का दर्शन लाभ दिया है।

सौजन्मों के पुण्य उदय जब होते हैं जीवन में,
सत्पुरुषों का संग और शुभ चिन्तन उगता मन में,
जन्म-जन्म अनुशीलन से जो गुण न प्राप्त होता है,
साधु संग से क्षण में मिलता, मनः कलुष धोता है।

साधु संग सेवा से बढ़कर कोई काम नहीं है,
और साधुता से बढ़कर कुछ भी अभिराम नहीं है।
साधु स्वभाव सरल निर्मल उज्ज्वल उदार होता है,
जहाँ भरा मानवता के हित अमित प्यार होता है।

साधु स्वभाव समष्टि पर्व का स्वर्ण-प्रदीप मधुर है,
जिसकी धवल ज्योति से ज्योतित धरा और सुरपुर है।
विचरण करता हुआ साधु सद्गुण संस्थापन करता,
दुर्गुण का कर अन्त मनुजता का अभिवर्धन करता।

धराधाम पर मानवता का मुकुट साधु निर्भ्रंम है,
साधु संग बिन मनो-प्रगति आकाश-कुसुम के सम है।
परमेश्वर को सकल सृष्टि में साधु सर्वप्रिय नित हैं,
ब्रह्म, विष्णु, महेश, शेष पद रज को लालायित हैं। "

तभी एक ऋषि बोले यदि ये साधु ईश के प्रिय हैं,
तो क्यों इनके आस-पास हो रहे कार्य अप्रिय हैं?
सबका हित करने वाले क्यों साधु कष्ट पाते हैं,
घोर अभावों और त्रास से क्यों त्राषे जाते हैं?

अजित असुरता सज्जनता भक्षण कर जाती है,
आखिर क्यों यह दमन साधुता समय-समय पाती है?
दमन और सन्त्रासों का यह अर्थ नहीं अनुपम है,
चिन्तन और मनन का तुममें अभी शेष कुछ श्रम है।

अरे ऋषिप्रबर! कारण के बिन कार्य न किंचित होता,
जो होता है वह तो तिल-तिल पूर्व सुनिश्चित होता।
देखो जब आसुरी वृत्ति बढ़ती है इस वसुधा पर,
आतंकित होता समाज अत्याचारों में फँसकर।

होता घोर अधर्म और अन्याय अतुल वसुधा पर,
आँसू-आँसू होती धरती आँसू-आँसू अम्बर,
तब लेते अवतार धरा पर शक्ति सहित परमेश्वर,
और अधर्म समूल नष्ट कर धर्म रोपते सत्वर,

ऋषे! नश काया का कुछ भी नाश नहीं होता है,
जो न जानता यह वह कायासक्त दास रोता है।
यह तो सचमुच ही विकार है कहाँ प्रकृति पावन है,
इसमें बस अमूल्य अनुपम परमेश अंश श्रीधन है।

उसी अंश के दर्शन का अभियान साधना पथ है,
उसकी महिमा का न कहीं मिलता कुछ भी इति अथ है।
उस चैतन्य तत्व का दर्शन है अभीष्ट जीवन का,
जब तक मिलता नहीं त्याग होता न सहज नर तन का।

किन्तु सघन मायावरणों ने आत्मच्छन्न किया है,
उसने ही चाहा जिसको दर्शन बस उसे दिया है।
छिपा रखा मौलिक स्वरूप् अन्तरतम के गहृर में,
और खोजते फिरते हैं हम उसको इधर-उधर में।

लिये नाभि में कस्तूरी मन-मृग यह भटक रहा है,
जबकि अदर्शन पल प्रतिफल मन को ही खटक रहा है।
ऋषे! आत्मपथ अनुसंधित्सा ही है भक्ति मही पर,
इसके सिवा अभीष्ट न कुछ भी मुझको मिला कहीं पर।

ऋषियो! यह बालिका अनमनी-सी क्यों मौनवती है?
किस कुल की यह दीपशिखा एकाकी प्रभावती है?
वन विहार के लिए राजकन्या आश्रम आयी है,
या कि पिपासा शास्त्र ज्ञान की इसे खींच लायी है? "

" काशिराज की सुता सकल सद्गुण की अवलम्बा है,
अम्बालिका अम्बिका की अग्रजा नाम अम्बा है। "
महामते! क्योंकर बाला पर उदासता छायी है?
कौन भला ऐसा संकट आया जो दुखदायी है?

दिखती नहीं चपलता वय की बस चिन्तन छाया है,
यौवन की चौखट पर क्यों प्रोढत्व प्रखर आया है?
बाले! कहो कौन-सी विपदा तुम पर आन पड़ी है?
किस कारण उद्दीप्त छवि-छटा धूल समान पड़ी है?

ऋषिवर! मैंने शाल्यराज का मन से वरण किया था,
किन्तु स्वयंवर से ही गंगासुत ने हरण किया था।
जब मैंने हस्तिनापुरी में मनोव्यथा बतलायी,
तो फिर मैं श्री शाल्यराज के द्धार गयी भिजवायभ्ं

किन्तु तिरस्कारों से ज्यादा कुछ न मुझे मिल पाया,
छिपा हुआ प्रारब्ध उभरकर जीवन में है आया,
अपमानों के झंझावातों ने धूमिल कर डाला,
मधुशाला हो गयी जिन्दगी की मेरी मधु-शाला।

ममता-समता कहाँ धरा पर नारी कुछ पाती है,
शोषण की उत्तप्त धार में बहती उतराती है।
वैभव बल पर पिता तुल्य वृद्धों से ब्याही जाती
स्वप्नवीथिका में काँटो की फसल उगायी जाती है।

बज्र बाहुबन्धन में नारी धर्म विवश घुटता है,
लेक लाज को आग लगाकर यौवन धन लुटता है।
लोक, धर्म, मर्यादाओं सब मेरे लिए बनी हैं
और मनुज-मन-मधुकर की कामना मुक्त अवनी है।

मनोवांछित करे पुरूष सब उचित न कुछ अनुचित है,
और स्वप्न भी देखे नारी तो वह त्याज्य त्वरित है।
ऋषे! आज उर-अन्तर मेरा दग्ध हुआ जाता है,
आखिर कब तक सहूँ पाप यह अब न सहा जाता है। "

अश्रुस्नात निज व्यथा-कथा सब अम्बा ने बतलायी,
द्रवित हो उठा था ऋषिमण्डल आँख-आँख भर आयी।
परशुराम बोेले " पुत्री! तुम धैर्य धरो निज मन में,
भीष्म शिष्य है मेरा उसको आज्ञा दूँगा क्षण में,

वरण करेगा तुम्हें, क्षमा माँगेगा शरणगत हो,
करो विसर्जित सभी निराशा आशा अभ्यागत हो।
शेष नहीं अब कोई कारण रहा तुम्हारे दुख का,
उत्साहित होकर के अब तुम करो वरण वर सुख का।

तुम चाहो तो शाल्वराज को ही बन्दी करवा लूँ,
धर्मपूर्वक ब्याह तुम्हारा आश्रम में करवा दूँ। "
" नहीं-नहीं ऋषिराज! शाल्व को अब मैं नहीें वरूँगी।
छोड़ चुकी हूँ जिस चौखट को उस पर पग न धरूँगी।

शाल्य युद्ध जर्जर है ऋषिवर! डसका शेष मरण है,
वह तो जीवित भी अब मृत है उसका व्यर्थ वरण है।
कृपा आपकी हुई, भीष्म का वरण सहर्ष करूँगी,
और नहीं तो प्रखर तपोबल का उत्कर्ष करूँगी।

देखेगा यह नर समाज नारी के तेज अतुल को,
सहन नहीं कर पायेगा प्रतिशोध अग्नि संकुल को,
मेरे प्रबल क्रोध की ज्वाला भीषण धधक उठेगी,
तो उनकी खोखली वीरता तृणवत दहक उठेगी।

कंगन फेंक हाथ मेरे जब अस्त्र-शस्त्र धारेंगे,
बढ़कर नर के थोथे बल विक्रम को ललकारेंगे।
शान्त-शान्त हे देवि! हृदय में शान्ति कान्ति को धारो,
धैर्य धरो यों मत क्रोधानल मन का और उभारो।

अच्छा हुआ, हो रहा अच्छा, होगा भी अच्छा ही,
निर्णय है यह महाकाल का जो है सतत प्रवाही,
हम सब तो निमित्त हैं केवल कर्ता एक वही है,
वह परोक्ष रहकर भी हरपल सक्रिय सही-सही है।

नहीं क्रोध में इष्ट सिद्धि हो पाती है सुखकारी,
और भड़कती अग्नि-द्वेष की कर देती दुखभारी,
शुभे! शान्ति सद्भाव प्रेम का मन्त्र विजयदाता है।
क्रोध, युद्ध अन्तिम विकल्प, भारी विनाश लाता है।

या तो भीष्म वरण कर तेरा तुझको ले जायेगा,
या फिर समर घोर में मुझसे मृत्युदण्ड पायेगा।
बटुक दूत को भेज भीष्म को बुलवाया सत्वर था,
कुशलक्षेम के बाद मुखर श्री परशुराम का स्वर था।

हे गांगेय! धर्म के पण्डित नीति न्याय ज्ञाता हो,
कुरुकुल के संरक्षक, धरती के महान त्राता हो।
प्रसरा हुआ दिगन्तों तक अक्षर व्यक्तित्व धवल है,
परम यशस्वी धैर्य सिन्धु अनुपम अखण्ड उज्ज्वल है।

क्षत्रिय जिस नारी का कर अपने कर में लेते हैं,
नहीं उसे फिर तृण समान वे तुरत त्याग देते हैं।
कौरव कुल की गरिमा तो अक्षुण्ण अटूट रही है,
कहो तुम्हीं से यह मर्यादा फिर क्यों टूट रही है?

आर्यपुत्र! आचरण चरण की मर्यादा को पालो,
हरण किया है जिस बाला का उसको अब अपना लो।
वरण नहीं करना था तो फिर क्योंकर हरण किया है?
अम्बा के जीवन में क्यों दुख का संचरण किया है?

यह तो है नारी लज्जा मर्यादा से बन्धित है,
सभी तरह संकोच शील से हर क्षण प्रतिबन्धित है।
सोचो तिरस्कृता होकर वह कितनी दंखी हुई है,
सम्मानिता राजकन्या आश्रम में छुपी हुई है।

श्रद्धानत हो भीष्म कह उठे हे गुरुदेव नमन है,
कथन आपका सत्य सहज धर्मानुकूल पावन है
किन्तु विवश मैं ब्रह्मचर्य का व्रत अखण्डधारी हूँ,
शपथपूर्वक कहता हूँ मैं अब तक अविधारी हूँ।

और हरण अम्बा का मैंने निज हित नहीं किया था,
जो आज्ञा दी थी माता ने मैंने वही किया था।
घोर समर कर तीनों कन्याओं को मैं लाया था,
किन्तु न इस अम्बा को होना अनुजवधु भाया था।

अम्बा ने तो शाल्वराज को ही मन से माना है,
कहाँ धर्म नारी का इसने पहले पहचााना है?
फिर भी कोई बल प्रयोग मैंने न किया था इस पर,
सत्वर भेजा शाल्वराज के पास इसे था सादर।

और शाल्व ने किया तिरस्कृत इसे नहीं स्वीकारा
तो गुरुदेव बताओ इसमें क्या है दोष हमारा?
अब इसका प्रारब्ध फलित है, जो सब भाँति अटल है।
उसका मंगल कहीं नहीं है जिसका मन चंचल है।

कुरुकुल शिखर! तुम्हारा भी यघपि यह उचित कथन है,
प्रश्नांकित हो रहा किन्तु इस बाला का जीवन है,
धरती पर परमार्थ सिद्धि ही सबसे बड़ा धरम है,
जो सब भाँति पुण्यशदायक श्री बैकुण्ठ परम है।

अगर किसी का हित साधन हो अपने इस जीवन से,
कोई कारण नहीं, जग सके मोह मृत्तिका तन से।
शिव ने किया लोकहित साधन, हँसकर गरल पिया था।
निज जीवन का मोह तात! तिलभर भी नहीं किया था।

अरे! क्रूर कट्टरपन ने क्या नहीं अनर्थ किया है?
ननजीवन की मधुरिम धारा को अक्षय खार दिया है।
यदि नर के भीतर भी नव औदर्य ज्योति जग पाती,
तो नारी के जीवन में दुख महानिशा क्यों आती?

सोचो नारी हित में तुमने कितने कार्य किये हैं,
दुःख, दैन्द, सन्ताप, अश्रु, अभिशाप अमाप दिये हैं,
वत्स! आज माधुर्य शिखरिणी नारी दृग्धमना है,
वीर प्रसविनी-महामही पर करुण वितान तना है।

अम्बा ही न कितनी युग की बालाएँ हैं,
संरक्षण दुलार से वंचित शोषित कन्याएँ हैं।
मधुप-मनुज यदि इन्हें समादर दे थोड़ा अपना ले,
तो वैषम्य-मेघ उट जायें नभ-समाज से काले।

सहधर्मिणी सृष्टि सर्जन की बस कर्तव्यवती है,
वंचित है अधिकार बोध से रहती ठगी-ठगी है।
कर्म और अधिकार उसे यदि ठीक-ठीक मिल पाते,
तो अखण्ड भूमण्डल पर अति प्रगति कमल मुस्काते।

माता होकर भी दासी का जीवन भोग रही है,
कदम-कदम पर सदा-सदा से दारुण व्यथा सही है,
सुलग-सुलगकर भस्म हो रही मन की मन में मंजिल,
क्यों न सजाता नर जीवन के मधुर पर्व को हिलमिल?

भीष्म! तुम्हें आज्ञा है मेरी अम्बा को अपना लो,
बाँह गहे की लाज रखो जीवन को धन्य बना लो।
रूढ़ि अन्धविश्वास और कट्टरपन सघन हटाकर,
तोड़ो वह अब परम्परा, जो भरती है दुखगागर।

नहीं-नहीं गुरुदेव! विवश हँू इस आज्ञापालन से,
मुझे मोह अपने प्रण से है नहीं रन्च जीवन से।
इसके बदले जो चाहें, वह सब कुछ कर सकता हूँ,
किन्तु प्राण रहते शरीर में इसे न वर सकता हूँ।

कहें, धरा आकाश यक्ष किन्नर नर बन्दी कर लूँ,
या कि शीश निज काट आपके चरणों पर ही धर दूँ,
सब मर्यादा तृण समान मैं अभी त्याग सकता हूँ,
ब्रह्मचर्य के व्रत अखण्ड से पर न भाग सकता हूँ।

भीष्म! स्वार्थ की धारा में क्यों लगा रहे गोते हो?
क्यों प्रण का आवरण ओढ़ कर्तव्य विमुख होते हो?
जो अपना कर्तव्य त्याग कर मनमानी करता है,
घोर संकटो से वह अपने जीवन को भरता है।

संकट हो या समाधान सब आते हैं जाते हैं
शिष्य आपके नहीं कभी इन सबसे घबराते हैं।
तो फिर तुम क्यों नहीं वरण अम्बा का कर लेते हो?
पुण्य-यज्ञ में, व्यर्थ दोष निज प्रण को क्यों देते हो?

गुरुवर! मैं कह चुका विवश हूँ, इस आज्ञा पालन में,
और न कोई वचन आपका टालँूगा जीवन में।
एक वचन यह छोड़ और जो कहें निभाऊँ सत्वर,
अस्त्र-शस्त्र, धन धाम प्राण अर्पण है सब चरणों पर।

भीष्म! चेतना में लौटो यह कैसा पागलपन है?
वीरोचित यह नहीं भाव है यह तो कायरपन है।
या अम्बा से ब्याह करो सद्धर्म जगत हितकारी,
या फिर करो शिष्य गुरु के रण उत्सव की तैयारी।

प्रस्तुत हूँ गुरुदेव! युद्ध से मुझे न किंचित भय है,
किन्तु युद्ध भीषण होगा सम्भावित एक प्रलय है।
मैं क्षत्रिय हूँ क्षत्रिय का तो धर्म युद्ध करना है,
होना विमुख युद्ध से दुख है, सुख लड़कर मरना है।