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ऋषि का शब्द चित्र / लाखन सिंह भदौरिया

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श्वेताभ हिमशिखर, शीश उठाकर ऊपर,
गर्वोन्नति उन्नत भाल, छू रहा अम्बर,
लगता समाधि में लीन, युगों से यतिवर,
निर्झर का मुखर निनाद, शान्त वन प्रान्तर।

है प्रकृति, मुदित, उल्लासित हरित तृण तरुवर,
अपलक विमुग्ध छवि, निरख रहा नीलाम्बर,
हिम रजत कान्ति नग स्मित-सी फैली है,
दिव्यता जहाँ छवि घर कर गले मिली है।

इस प्रकृति-पुरुष की रम्य क्रीड़ में आकर,
आर्यत्व स्वयं बैठा, मृग चर्म बिछाकर,
दाहिने पार्श्व जल पूर्ण कमण्डल धर कर,
सिद्धासन पर आरूढ़ दिख रहे ऋषि वर।

गौरोंग तेज से दीपत सौम्य आनन पर,
होती रश्मियाँ विकीर्ण उदित ज्यों दिनकर,
ध्यानस्थ लोक कल्याण योग में लय से,
पा गये प्राप्य लगता वे पूर्व समय से।

युग नयन दूर तक देख रहे कुछ आगे,
ज्यों आप्त काम की क्रान्ति दर्शिता जागे,
दृढ़ता संयम की दीप्ति लिये अपने में,
पर दुख कातरता, द्रवित किये सपने में।

बह उठती जिनसे गंग-जमुन की धारा,
करुणा ने जिनसे अपना रूप सँवारा,
वक्ष स्थल विस्तृत सबके लिये खुला है,
पर टकराने वाले को लौह शिला है।

है कोमलता कठोरता का शुचि संगम,
शान्ति का, क्रान्ति का केन्द्र दिख रहा अनुपम,
युग वृषभ स्कन्ध के मध्य उठी ग्रीवा पर,
गोलाकृति मकुख की भव्य भावना भास्वर।

दमदमा रहा है भाल, तेज की गरिमा।
साकार हुई है ब्रह्मचर्य की महिमा।

आलोक छलक कर अधरों पर अरुणायित,
आनन्द अमिय से अन्तर है आप्यायित,
सौम्यता स्वयं शरणस्थल पा विस्मित है,
अधरों पर अनुपम, खेल रही स्मित है।

पोरुष प्रलम्ब बाँहों में, सहज, प्रकट है,
ऊर्जस्वित दिव्य स्वरूप लिये मधु घट है,
शक्तियाँ देह में समिट, शक्ति बन फूटीं,
सिद्धियाँ बिखेरी तप ने, जग ने लूटीं।

मेरे भारत के तुम सजीव सपने हो,
विश्व का हलाहल पीकर अमर बने हो,
आनन्द ज्ञान, युग दृग से झाँक रहा है,
जग आज तुम्हारी कीमत आँक रहा है।

बल देता है, निर्बल को चित्र तुम्हारा,
जीवन पवित्र कर रहा चरित्र तुम्हारा,
है शब्द कहाँ जो चित्र तुम्हारा आँकूं?
इतने मणि-मुक्ता कहाँ उन्हें जो टाँकूं?

जो देख रहे छवि, नयन न उनके वाणी।
है गिरा नयन से हीन बड़ी हैरानी।