वृहद जलाशय पर झुका है
एक संन्यासी-सा पेड़
जिसे सूरज देख रहा है टेढ़ी आँख से
यही है मिश्रिख में
ऋषि दधीचि का आश्रम !
अनेक मन्दिरों और आश्रमों के बीच
इसी जलाशय में इन्द्र लेकर आए थे
जम्बू द्वीप की समस्त पवित्र नदियों का जल
ऋषि दधीचि के स्नान के लिए
अद्भुत प्रसंग है
यहाँ देवराज इन्द्र लेते हैं दान
एक तपस्वी ब्राह्मण से !
उसी तालाब की सीढ़ियों पर बैठा हूँ ध्यानस्थ
जिनके ऊपर बना है ऋषि मन्दिर
जहाँ अभी भी बचे है कुछ पुराने अवशेष
जो याद दिलाते हैं
इतिहास में बिखरी कई कहानियाँ !
ब्रह्मा के पुत्र थे भृगु ऋषि
जिन्हें अथर्ववेद का श्रवण करने के कारण
इतिहास जानता है अथर्वन के नाम से
उनके पुत्र थे दधीचि
जिन्होंने प्रसिद्ध नैमिषारण्य क्षेत्र में
मिश्रिख को बनाया अपनी कर्म भूमि !
मधुविद्या के ज्ञाता थे दधीचि
जिसके उपयोग से प्राणी हो सकते थे अमर
कहते हैं इन्द्र ने दी थी उन्हें यह विद्या
इस शर्त पर
कि इसे सिखाएँगे नहीं किसी शिष्य को !
जब अश्वनीकुमारों ने विद्या सीखने के लिए
किया ऋषि से अनुरोध
सदाशयता के कारण
मना नहीं कर पाए दधीचि
यह जानते हुए भी
कि इन्द्र काट लेगा उनका शीश तत्काल !
अपने शरीर पर
घोड़े का शीश लगाकर ऋषि ने दी शिक्षा
जिसे काट लिया गया इन्द्र के द्वारा
पर अश्वनी कुमारों ने
पुनः स्थापित किया ऋषि का संरक्षित शीश
मानव कल्याण के लिए,
परोपकार की प्रतिमूर्ति थे दधीचि !
एक बार इन्द्र के तुल्य ही
बलवान हुआ एक असुर -– वृत्रासुर
जिसके भय से डोल गया इन्द्र का सिंहासन
भाग खड़े हुए समस्त देवता
और उन्होंने जाकर कहा -- त्राहि माम,
विष्णु के दरबार में !
वृत्रासुर का वध नहीं है आसान
जानते थे विष्णु
न धातु से मरेगा वह
न काष्ठ से
उसकी मृत्यु होगी उस वज्र से
जो संचित है ऋषि दधीचि की हड्डियों में !
बहुत निर्लज्ज थे इन्द्र
आ पहुँचे हड्डियाँ माँगने
दधीचि आश्रम की सीढियों पर !
दधीचि प्रसन्न हुए
कि काम आएगा उनका शरीर
असुरों के विनाश के लिए
और तीनों लोक मुक्त हो पाएँगे
असुरों के सन्ताप से,
उन्हीं के स्नान के लिए बनाया गया था यह कुण्ड
आज जिसकी सीढ़ियों पर
सरस्वती के आदेश से
मैं खोज रहा हूँ इतिहास के बिखरे हुए सूत्र !
स्नान कर ऋषि ने समाधिस्थ हो
त्याग दिया अपना मानव-शरीर
जिसे चाट-चाट कर हड्डियों में बदला
कामधेनु के बछड़ों ने !
उनके मेरुदण्ड से बना वज्रायुध
जिससे मृत्यु को प्राप्त हुआ वृत्रासुर
अन्य अस्थियों से बने गाण्डीव, पिनाक और सारंग
जिनका उपयोग हुआ रामायण, महाभारत काल में !
दधीचि कुण्ड के जल में
काँप रही है मेरी परछाई
जो बोध करा रही है
मेरी भययुक्त मानवता का
जिसे असुरों से बचाने के लिए
आज फिर एक वज्रायुध की आवश्यकता है !
पर दुर्भाग्य से
कलियुग में पैदा नहीं होते दधीचि !
दधीचि आश्रम के बाद
और कुछ भी नही है पाथेय
मिश्रिख के इस जन-अरण्य में,
सम्मान के भाव से नतमस्तक
हम बारम्बार प्रणाम करते हैं
ऋषियों की इस तपस्थली को !
एकदा नैमिषारण्ये !