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एँ गईं आड़ में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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एँ गईं आड़ में
लुकइला से काम ना चली।
लुकाए के होखे
त आके, हमरा हृदय में
लुका के बइठ जा।
ना केहू जानी,
ना कूहू बोली
ना केहू बोलाई।
संसार भर में
तहार लुका चोरी चल रहल बा
सगरो सृष्टि में
तूं आँख मुँदउवल खेल रहल बाड़ऽ
ना जाने जे कहाँ-कहँ
कतना भटकलीं हम
देशे-विदेशे सगरो भटकलीं।
अबकी बार बोलऽ
धोखा ना नूं देबऽ
छल ना नूं करबऽ
हमरा हृदय का कोना में
लुका के बइठबऽ नूं?
आवऽ आवऽ
अबहूँओं से हमरा हृदय में
लुका के बइठ रहऽ
अब हमरा के छोड़ के मत जा।
अब एहगईं

आड़ में लुकइला से,
काम ना चली।
ई हम जानऽ तानी
जे हमार कठिन हृदय
तहार कोमल चरन धरे जोग नइखे।
बाकिर, तहार हवा जब लागी
हमार हृदय तहार परस जब पाई
तबहूँ हमार प्राण गली ना का?
द्रवित होके कोमल ना बनी का?
साइत हमार साधना
ओइसन नइखे।
बाकिर
तहरा कृपा के कन जब झरी
त पल भर में
हमरा फुलवारी के फूल
खिल ना उठी का?
छने भर में
गाछन के डेहुँगी में
फल ना लाग जाई का?
अब एहंगईं
आड़ में लुकइला से
काम ना चली।