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एकटा इनार लग प्रस्फूटित बेली फूलक ग छ / राजकमल चौधरी

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जेना एकटा प्रचण्ड प्राक् ऐतिहासिक आगि धधकि रहल अछि
एहि टूटल-भाँगल इनारमे।
पीअर-पाण्डुर भय गेल अछि तुलसी दल;
अनचिन्हार गामक एहि भयावह अन्तरंग-व्यापी अन्हारमे
कियैक बहैत अछि पुरबा एहेन रक्त-श्लथ, चंचल?
सुनू, हेम-सीमन्तिनी,
यैह थिक देहक अन्तिम सीमा, एतबे...
यैह अन्हार, यैह टूटल-भाँगल इनार, यैह अधफूजल
आँखिक केबाड़...
कियैक ठाढ़ि छी बरखामे तितैत,
ठेहुन भरि पानि मे, कुहेसक धुआँमे भरि गरदनि, हे फूल, अहाँ
कियैक छी डबल?
एहि गमैया इनारक प्रचण्ड आगिसँ
आत्मरक्षा करबाक की भेटल नहि, भेटल नहि आन कियो,
आन कोनो सम्बल?

(2)

घुरि जाउ अप्पन बन्द पलकमे...घुरि जाउ हे सीमन्तिनी,
सीमा नहि तोड़ू
अहाँ सीता नहि छी, एहि बताह सामाजिक धधरासँ कोनो सम्बन्ध
नहि जोड़...मुदा,
अहाँ स्वर्ण-सीता छी अहींक मूर्ति,
अहींक सिन्दूरी प्रतिमा कविता-सिंहासन पर राखि हम पूजा करैत छी।
घुरि जाउ बन्द पत्रांकमे, बन्द कलिका बनि जाउ, हे फूल,
कनियेँ कालक उपरान्त
भ’ जायत भोर;
-ई आगि, ई अन्हार अपनहिं होयत शान्त,
होयत शान्त;
एखन राति बहुत बाँकी अछि।
एखन कवि हमर अछि निशा-यज्ञमे निमग्न, एखन कवि हमर
एकस्वर एकाकी अछि,
राति बहुत, एखन राति बहुत बाकी अछि।

(3)

हेम-सीमन्तिनी,
प्रभात बेलामे श्वेत मोतीक शीत-माला पहिरने, श्वेत वस्त्रा, आ
सद्यःस्नात, कनी गरबेँ, कनी धर्में लजायब
जखन अहाँ मुस्कायब;
तखनहि रवि किरण जकाँ, कोनो नव कवितामे-
हमहीं, मात्र हमहीं अहाँक निकट आयब,
हम सन्निकट आयब।

(आखर, राजकमलक स्मृति अंक: मई-अगस्त, १९६८)