एकमेव / अंकावली / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
दशो दिशा विभाग, दिशाकाश एक टा
दिवा निशा प्रभाग, महाकाश एक टा
भानु, वृहद् - भानु, शिशिर-भानु भानुएँ
तेज - ओज तिमिर - तोम दलन टेक टा।।1।।
अरुण-वरुण दिशा, उदय - अस्त नाम टा
सूर्य सदातने, अद्यतन विराम टा
नखत कत अनन्त, अन्त अन्तरिक्ष धाम
गगन सिन्धु बिन्दुमात्र ज्योति जत ललाम।।2।।
डारि भिन्न, पात भिन्न, भिन्ने फल-फूल
किन्तु तरु विशाल एक, एकमेव मूल
आम - जाम मधुर, दाख दाड़िम मधु मीठ
किन्तु एक मधुरिम रस, द्रव्य शेष सीठ।।3।।
सूत कते स्यूत - मते बुनल वस्त्र मात्र
जले सगर सागर - सर - कूप - नदी पात्र
नभ उड़ैत, जल डुबैत, थल चलैत जन्तु
कमठ - पीठ तनुक तुनुक - प्राण एक किन्तु।।4।।
व्यक्ति ओ समाज मे न द्वन्द्व भावना
लोक - तन्त्र, व्यक्ति-यन्त्र ऐक्य साधना
समष्टि व्यप्टिवाद एतै एक - प्राणता
भेद मे अभेद, अभेदो क भिन्नता।।5।।
बिन्दु संयुता एतै तरगिणी स्वयं
सिन्धु संगता एतै पयस्विनी स्वयं
मेघ बिन्दु, अद्रि रेणु, कीर्णता स्वयं
व्यष्टि मे समष्टि केर पूर्णता स्वयं।।6।।
जलद-जलधि नद - नदी न, सलिल सेक टा
वर्तिका न, व्यजनिका न, तडित वेग टा
व्यजन - अनुरंजन स्वर - स्वरित अक्षरे
प्रणव एक ओंकार, विदित त्र्यक्षरे।।7।।
कथा कते, विधा कते, व्यथा क एकते
प्रथा कते तथापि मूल एक टेकते
कवि क कवित अगनित प्रतिभैक अंचले
छवि क अंग अमित रंग - टीप चंचले।।8।।
पन्थ अछि अनन्त, गन्तव्य धाम एक
विविध मतहु रहितहु, मन्तव्य नाम एक
पद-पदार्थ लक्ष, रसक लक्ष्य अन्तिमे क,
द्रव्य द्रवित ज्योति गति क, शक्ति अन्त एक।।9।।
दर्शन ओ दृश्य एक, दर्शक समतूल
स्पर्शन ओ स्पृश्य एक, स्पर्शक अनुकूल
हरिजन ओ हर जन जत जनक-जन्य मूल
चाहिअ सौजन्य धन्य जन्म कर्म तूल।।10।।
बिन्दु - बिन्दु मिलि तरंग गंग - अंग मे
अन्त मे प्रसंग एक सिन्धु - संगमे
ध्वनित - रणित राग - रंग कंठ एकमे
जीव कोटि - कोटि भ्रमेँ, ब्रह्म एक मे।।11।।